Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 103
________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन । [ शक्ति द्वारा उपस्थित अर्थों का आंशिक बोध अमान्य ] यदि यह कहा जाय कि-शक्तिजन्य ही उपस्थिति से विरुद्ध प्रकारांश का त्याग कर विशेष्यमात्र में परस्पर में अन्यथ हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि शक्ति द्वारा उपस्थित अर्थ का आंशिक बोध अप्रामाणिक है। अन्यथा गौनित्यः' इस वाक्य से गोपदशक्ति द्वारा ही गोत्व में नित्यपद के अर्थ का अन्वय हो जाने से गोपद की गोत्व में भागलक्षणा का उच्छेद हो जायगा । अर्थात् शक्ति द्वारा अर्थ बोध के तात्पर्य से 'गौनित्यः' इस प्रयोग के प्रामाण्य को आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-- 'गौनित्यः' इस वाक्य में गो शब्द से गौ विशेष्यरूप में उपस्थित है किन्तु उसमें नित्यत्व के अन्वय की योग्यता नहीं है। अतः गोत्व में नित्यत्व के प्रन्वय के लिये गोत्व में गोपद को मागलक्षणा प्रावश्यक है-तो यह बात 'तत्त्वमसि' इस स्थल में भी समान है, क्योंकि यहाँ भी जीवत्व और ईश्वरत्वरूप से उपस्थित अर्थों में अभेवान्यय की योग्यता नहीं है, अतः जीवश्व और ईश्वरत्व को छोड़कर विशेष्यमात्र की उपस्थिति के लिये भागत्यागलक्षणा आवश्यक है। [ गो पद की लक्षणा के प्रयोजन की आशंका का उत्तर ] यदि 'गौनित्यः' इस वाक्य में गो पद को लक्षणा के समर्थन में यह कहा जाय कि-"उक्त वाश्य से 'गोत्वं नित्यम्' इस बोध की उपपति के लिये विशेष्यविधया गोत्व को उपस्थिति अपेक्षित है, क्योंकि विशेष्यतासम्बन्ध से पदार्थान्वयबोध के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से पदजन्य उपस्थिति कारण होती है-इस कार्यकारणभाव के अनुरोध से 'पदार्थः परार्थनान्वेति न तु पदार्थकदेशेन'-एक पदार्थ का पदार्थान्तर के साथ ही अन्वय होता है, किन्तु पदार्थ के एकदेश के साथ नहीं होता-यह नियम है। अतः गोपनिष्ठशषितजन्य उपस्थिति विशेष्यतासम्बन्ध से गोत्व में न रहने से गोस्व में नित्यत्व अन्धय नहीं हो सकता। अत एव गोपद से गोस्वविशेष्यकोपस्थिति के लिये गोत्व में गोषद को भागत्यागलक्षणा का प्रावर होता है '-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'सत्वमसि' इस वाक्य में भी 'सत्' और 'त्वम्' पद से शक्तिजन्य बोध माना जायगा तो तत् और त्वम् पद से शक्ति से उपस्थित ईश्वरत्वविशिष्ट और जीवत्वविशिष्ट में जीवत्व और ईश्वरत्व को छोड़कर जीव पदार्थ चैतन्य और ईश्वरपदार्थ चैतन्य के अभेद संसर्ग का हो भान होगा किन्तु इस वाक्य से अभेदसंसर्गक बोध इष्ट नहीं है, इष्ट तो है अखण्डार्थ का बोध, जिसके लिये लक्षणा से शुद्ध वस्तु को उपस्थिति प्रावश्यक तत्वमसि' इस वाक्य में तत् और त्वम् पद से लक्षणा द्वारा शुद्ध चैतन्यात्मक वस्तु की उपस्थिति होने से ही उक्त वाक्य का अर्थबोध निविकल्पक होता है। क्योंकि वहाँ पदार्थ ही वाक्यार्थ होता है । ऐसा मानने पर यह शंका कि--'यदि पदार्थ और वाक्यार्थ में भेद नहीं है तो वाक्य का प्रयोग व्यर्थ है। किसी एक पद मात्र का बोध ही पर्याप्त है।'-नहीं की जा सकती क्योंकि पद अप्रमाण है- अर्थात् एक पद मात्र से प्रमात्मक ज्ञान का उदय नहीं होता। दूसरी बात यह है कि चाक्यजन्यबोध के अभाव में जीव और ईश्वर में मेवभ्रम की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि 'सोऽयं देववत्तः' इत्यादि लौकिकवाक्यस्थल में भी केवल 'सः' अथवा केवल 'अ' इस पद का देवदत्त के स्वरूपमात्र की विवक्षा से प्रयोग करने पर उस एक एक पद मात्र से जन्य बोध से 'अयं न सः' इस भेदभ्रम की निवृत्ति नहीं होती है-किन्तु 'सोऽयं' इस वाक्यजन्य देववत्तस्वरूपविषयक बोष से ही होती है।

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