________________
७८ ]
न्यायेन साधनान्तरोपसंहारेऽपि तत्तच्छाखोपस्थितैकैकसाधनाऽबाधात्, इतरसाधनाभावस्य शब्दादनुपस्थिते, आर्थिकस्य तदसाधनान्ययस्य दानवायात् ।
[ केवल मुमुक्षा अधिकार सम्पादक नहीं ]
कुछ विद्वानों का जो यह कहना है कि मोक्ष की इच्छा हो श्रवणादि के अधिकारी का विशेषण है क्योंकि वही अधिकार का अन्यनिरपेक्ष निमित्त है।' किन्तु यह ठीक नहीं है । क्योंकि श्रवणादि के लिये अपेक्षित शरीरावि का सामर्थ्यादि भी अधिकार का निमित्त होता है । यदि यह कहा जाय कि'अधिकार में मोक्षकामना श्रर्थतः - लिङ्गतः प्राप्त सामर्थ्यादि की अपेक्षा होती है किन्तु उससे अन्य afara fair को अपेक्षा नहीं होती' ' तो ऐसा कहने वाले विद्वानों को यह सोचना होगा कि क्या श्रुति और लिङ्ग में लिङ्ग श्रुति की अपेक्षा बलवान् है ? निविवाद है कि लिङ्ग की अपेक्षा श्रुति बलवती होती है, अतः श्रुति से जब उक्त तीन साधन भी अधिकारी के विशेषण रूप में अवगत होते है तो केबल मुमुक्षा को तथा लिङ्गगम्य सामर्थ्यादि को ही अधिकारी का विशेषण मानना अनुचित है । अतः जैसे 'राजा राजसूयेन यजेत' - राजा राजसूयनामक याग से इष्ट प्राप्त करें - इश्यादि स्थल में श्रुतिप्राप्त राजत्वादि अधिकारी का विशेषण होता है इसीलिये राजस्व से च्युत हुआ व्यक्ति राजसूय यज्ञ में अधिकारी नहीं होता, उसीप्रकार श्रुतिप्राप्त नित्याऽनित्यविवेकादि को भी अधिकारी का विशेषण मानना श्रावश्यक है।
शास्त्रवाल० स्त० ८ श्लो० २
यदि यह कहा जाय कि मुमुक्षा सार्वत्रिक प्रर्थात् वेदान्त की समस्त शाखाओं में श्रवणादि के अधिकार के निमित्तरूप में उक्त है और तत्त्वविवेक = नित्याऽनित्य वस्तु विवेकादि साधन वेदान्त की एकैकशाखामात्र में श्रवणादि के अधिकार के निमित्त रूप में उक्त है । श्रतः वे 'सम्पूर्ण वेदान्तजन्यare से एक एक शाखावबोध दुर्बल होता है' इस न्याय से बाधित हो जाते हैं । अतः वे अधिकारी के विशेषण नहीं हो सकते' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सम्पूर्ण वेदान्त के प्रत्ययन्याय से उपसंहार में साधनान्तर मुमुक्षा का प्रतिपादन होने पर भी तत् तत् शाखाओं से ज्ञात एकैकसाधन का बोध नहीं होता । क्योंकि उपसंहार में शब्द से इतर साधन के अभाव की उपस्थिति नहीं होती । अतः वहां मी सत्त्वविवेकादि में श्रवणादि के अधिकार की असाधनता के अभाव का अर्थात् साधनता का श्रतः प्रत्यय होने में कोई बाधा नहीं होती ।
नन्वेधं 'शान्तो दान्त उपरत' इति पुरुषविशेषणत्वात् संन्यासोऽप्यधिकारिविशेषणं स्पात् । न चानङ्गभूतस्य तस्य तथात्वम्, विहितत्वात् नाप्यङ्गभूतस्य तस्य श्रवणगिरये श्रुत्याद्यसन्वात् । न च प्रकरणात् तस्य तथात्वम्, आत्मनः प्रकरणात् संविधानात् तथात्वे वैपरीत्येऽप्यविनिगमात् फलवन्वस्योभयत्राविशेषेण समप्राधान्यात् । किञ्च, 'शान्तो दान्त' इत्यादापरतिपदाभिधेयस्य सन्न्यासस्य शान्त्यादिपदोपस्थिततद्वत्कतु कविचारस्य च समुच्चयो विधीयते, अव्यभिचरितसंबन्धेन जुहुपदेन क्रनुपस्थितिवच्छान्त्यादिपदैस्तद्वत्कत् 'कविचारो पस्थिते, अन्यथा ज्ञानस्य फलत्वेन विध्यगोचरत्वात् ज्ञानोद्देशेन शान्त्याद्यनेकगुण विधाने वाक्यमेदप्रसङ्गात् इति ज्ञानाङ्गत्वमेव सन्न्यासस्य । न च 'वेदानिमं लोकमसु' च परित्यज्या
,