Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 35
________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] इसलिये नहीं होती कि अविद्या का स्वभावतः विषय में पक्षपात होता है । इसलिये अविद्या के विषयभूत ब्रह्म में ही बाह्य प्रपञ्च को उत्पत्ति होती है। अविद्या का विषयपक्षपात शुक्तिरजताविस्थल में दृष्ट है । क्योंकि शक्ति प्रावि को अविद्या से शुक्तिरजतादि की उत्पत्ति शुक्ति के अज्ञानाश्रय जीव में न होकर उसके विषयमूत शुक्ति आदि में ही होती है। अतः ब्रह्मविषयक अविद्या से भी उसके आश्रयभूत जीव में प्रपञ्च की उत्पत्ति न होकर ब्रह्म में हो होना उचित है। तथा ब्रह्म में प्रपन को उत्पत्ति में ब्रह्मसर्गज्ञता की प्रतिपादक श्रुति भी प्रमाण है । आराय यह है कि ब्रह्म में प्रपञ्च को उत्पत्ति होने से हो समस्त प्रपत्र के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध होने से सर्वज्ञता उपपन्न हो सकती है। यदि प्रपञ्च जीव में उत्पन्न होता तो जीव ही सर्वज्ञ हो जाता क्योंकि उस स्थिति में समस्त प्रयन्ध के साथ जीव को सम्बन्ध होता है। प्रत्युत, ईश्वर की हो सकता में बाधा होती, क्योंकि जीवगसप्रपश्व के साथ ब्रह्म का सम्बन्ध नहीं होता है। इस पक्ष में यद्यपि यह बात अवश्य है कि जीव को अविद्या का आश्रय मानने पर अविद्या के प्राश्रयता का अवच्छेवक प्रविद्योपहित चित्त्व होता है और ब्रह्म को अविद्या का आश्रय मानने पर उसकी आश्रयताका अवच्छेदक केवल चित्व होता है। अत: जीव में अविद्याश्रयता के पक्ष में गौरव है। तथापि 'प्रहमज्ञः' इस प्रतीति प्रामाणिक होने से और ईश्वर में अज्ञानाश्रयता की प्रतीति का प्रभाव होने से जीव में ही प्रज्ञान की आयता मानना उचित है । अतः उक्त गौरव दोष रूप नहीं हो सकता, क्योंकि प्रामाणिक गौरव को दोष नहीं माना जाता । अहमज्ञः इस प्रतीति के अनुरोध से अन्तःकरणावच्छिन्न चैतन्य को ही अविद्या का आश्रय मानना उचित नहीं है, क्योंकि अन्तःकरण के जन्य होने से तदवच्छिन्न चैतन्य भी जन्य हो जाता है अतः वह अनादि अविद्या का प्राश्रय नहीं हो सकता, अतः 'अहमज्ञः' यह प्रसोति अविद्योपहित चैतन्य की ही अविद्याश्रयता में प्रमाण होती है। ___तत्र माया-ऽविद्याशब्दद्वनिमित्तं शक्तिद्वयम्-विक्षेपशक्तिा, आवरणशक्तिश्च | कार्यजननशक्तिविक्षेपशक्तिः, तिगेधानशक्तिरावरणशक्तिः । यथाऽवस्थारूपस्य रज्ज्वज्ञानस्य सर्पजननशक्तिः, रज्जुतिगेधानशक्तिश्च, एवं मूलाज्ञानस्याऽद्वितीयपूर्णानन्दैकरसचिदावरणशक्तिः, आकाशादिप्रपश्चजननशक्तिश्च इति । 'आवरणमेव शक्तिः' इत्यपव्याख्यानम् , तस्यास्मनिष्ठत्वात् तच्छक्वेश्चाऽज्ञाननिष्ठत्वात् । अज्ञान के लिये माया और अविद्या इन दो शब्दों का बाहुल्येन प्रयोग होता है । अतः अज्ञान में दो शक्ति मानी जाती है-विक्षेपशक्ति और सावरणशक्ति । विक्षेपशक्ति का अर्थ है कार्य उत्पादक शक्ति और प्रावरणशक्ति का अर्थ है वस्तु के निजस्वरूप के तिरोधान की शक्ति । जैसे- मूलाज्ञान के प्रयस्थाविशेषरूप रज्जुबिषयक अज्ञान में सर्पजनन की शक्ति विक्षेपशक्ति है और रज्जुस्वरूप के तिरोषान की शक्ति प्रावरणशक्ति है। इसी प्रकार, ब्रह्मचैतन्यस्वरूपमूलाज्ञान में, अद्वितीय पूर्णानावस्वरूप सर्वदा एकस्वभाव ब्रह्म के स्वरूप का तिरोधान करने वाली आवरणशक्ति रहती है और आकाशादि प्रपञ्च को उत्पन्न करने वाली विक्षेपशषित भी रहती है। फलतः विक्षेपशक्तिविशिष्ट अज्ञान माया शब्द से और आवरणशक्तिविशिष्ट प्रज्ञान अविद्या शब्ध से अभिहित होता है । कुछ लोग प्रज्ञानजनितावरण को ही प्रदान की शक्ति कहते हैं किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि आवरण आत्मनिष्क होता है क्योंकि प्रात्मविषयक अज्ञान से आत्मा का प्रावरण होता है और उस

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