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शास्त्रवार्ता० स्त० ८ श्लो० १
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आवरण की शक्ति आत्मविषयक अज्ञान में रहती है । अतः आश्रयभेद से आवरण और शक्ति में ऐक्य नहीं माना जा सकता ।
तत्रैवाऽज्ञाने प्रपञ्चस्य परमार्थव्यवहारप्रतिभाससस्त्र प्रतीत्यनुकूला स्तिस्रः शक्तयः । आद्या श्रवणयासपरिपाकतः प्राकू, यया पश्यन्ति नैयायिकादयः 'पारमार्थिकोऽयम्' इति प्रपश्यम् । द्वितीया तत्परिपाके तस्वज्ञानात् प्राकू, यया पश्यन्ति विदितवेदान्ताः 'व्यावहारिकोऽयम्' इति प्रपञ्चम् | तृतीया तु तच्चज्ञानोत्पत्तौ यावत्प्रारब्धमनुवर्तते । तस्याश्च कार्य यद्यपि न प्रातिभासिकसण्वप्रतीतिः, व्यवहारवादे तथा वक्तुमशक्यत्वात्, व्यावहारिके प्रातिभासिक स्त्रप्रतीतौ तत्वज्ञानिनामत्यन्तभ्रान्तत्वप्रसङ्गात् दृष्टिसृष्टिवाद एवं वस्तुतः प्रातिमासिकस्याप्यन्यथाभासमानस्य शक्तित्रयेण क्रमेण तथाभानोपपत्तेः, तथापि व्यावहारिकस्यापि प्रपश्वस्य तत्रज्ञानेन आधितस्यापि प्रारब्धवशेन बाधितानुवृरया प्रतिभासस्तत्कार्यम् ।
[ परमार्थसच्च–व्यवहारसश्व-प्रतिभाससच्च प्रतीतिजनक तीन शक्तियाँ ]
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मूलाज्ञान में और तीन शक्ति होती हैं- १. प्रपश्व में परमार्थ सत्व की प्रतीति की जनक, एवं २. प्रपश्व में व्यावहारिकसत्त्व की प्रतीति को जनक, एवं ३. प्रपश्व के प्रातिभासिकसत्त्व की प्रतीति की जनक | पहली शक्ति श्रात्मा के श्रवण मनन और निदिध्यासन के अभ्यास का परिपाक होने के पूर्व रहती है जिस से नैयायिकादि को प्रपश्व में पारमार्थिकसत्त्व की वृद्धि होती है । द्वितीयशक्ति श्रवणादि के परिशक के उत्तर होने वाली श्रात्मतत्वज्ञान के पूर्व रहती है जिस से वेदान्तयेत्ता को प्र में व्यावहारिकसत्ता की प्रतीति होती है। तृतीयशक्ति तत्त्वज्ञान उत्पन्न हो जाने पर भी तत्त्वज्ञानी का प्रारब्धकर्म जब तक रहता है तब तक रहती है।
तृतीयशक्ति के कार्य के सम्बन्ध में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रपखव्यावहारिकत्व के पक्ष में उस का कार्य प्रातिभासिक सत्व की प्रतीति नहीं है क्योंकि उस पक्ष में प्रदश्व में प्रतिभाfor सत्त्व की प्रतीति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि तत्त्वज्ञानो को व्यावहारिक प्रपश्व में यदि प्रतिभासिक सस्व की प्रतीति होगी तो उस प्रतीति के भ्रम होने से तस्वज्ञानी को भ्रान्तत्व की श्रापति होगी । किन्तु दृष्टिसृष्टिवाद में ही प्रप में प्रतिभासिक सत्य की प्रतीति उसका कार्य हो सकती है। क्योंकि उस मत में सृष्टि की यावद्दर्शन ही सत्ता होने से प्रस्तुतः प्रातिभासिक सत् ही होता है । अतः उस में उक्त शक्तियों से क्रम से पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक सत्त्व की प्रतीति होती है । अतः प्रपश्व के व्यावहारिकत्व पक्ष में तत्त्वज्ञान से प्रषश्व का बाध हो जाने पर भी प्रारब्धवश जो बाधितप्रपश्व का प्रतिभास होता है वही तृतीयशक्ति का कार्य है ।
प्राच्यशक्तेरुत्तरशक्तिकार्यप्रतिबन्धकत्वाच्च न युगपच्छक्तित्रयकार्यप्रसङ्गः । प्रारब्धक्षये चान्तिमतत्वज्ञानेन सहाऽज्ञाननिवृत्तिः । तथा च श्रुतिः - " तस्याभिध्यानाद् योजनात् तच्वभावाद् भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः " इति । अयमर्थः तस्यं = परमात्मनः, अभिध्यानात् = अभिमु खाद् ध्यानात्, श्रवणाद्यभ्यासपरिपाकादिति यावत्, विश्वारम्भकमायानिवृत्तिः, आद्यशक्तिनाशेन
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