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स्या का टीका एवं हिन्दी विधेचन ।
क्योंकि उपाधि अथवा अवच्छेवक में क्रमशः उपहित अथवा अवच्छिन्न की भेवकता तभी होती है जब विभिन्न देशस्थ होते हैं, किन्तु अब वे एकवेशस्थ होते हैं तब वे उपहित अथवा अवच्छिन्न के उसी प्रकार भेवक नहीं होते जैसे ग्रह के बाहर रखे हुये घट परस्परावच्छिन्न स्वकाल में परस्परोपहिताकाश के भेदक होने पर भी गृह में पहुंच जाने पर ये सब एक ही गृहाकाश के अवच्छेदक होते हैं। इस प्रकार उक्त रोति से परिच्छिन्न जीव को भी घटादि का प्रत्यक्ष होने से उस के प्रति घटादि के परोक्षस्व की 'भापति नहीं हो सकती । म घटादि पदार्थ मातृ चैतन्य में उक्तरीति से अध्यस्त हो जाने से उसी प्रकार अपरोक्ष होता है जैसे सुख-दुःखादि अपरोक्ष होते हैं । सुखादि और घटादि की अपरोक्षता में अन्तर केवल इतना ही है कि सुखादि साक्षी द्वारा अपरोक्ष होता है और घटादि प्रमाण द्वारा अपरोक्ष होता है।
[ अपरिच्छिन्न जीव पक्ष में घटादि की अपरोक्षता । जीव को अपरिच्छिन्नता अर्थात् व्यापकता पक्ष में भी घटादि में जीव के प्रति परोक्षत्व की अापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस पक्ष में भी जीव को घटावि का प्रत्यक्ष होता है जैसे अपरिच्छिन्न जीव चैतन्य प्रसङ्ग है। किन्तु जीव के अन्तःकरण की घटाद्याकारवृत्ति घट से सम्बद्ध होकर जीव चैतन्य का भी घटादि के साथ उपराग सम्बन्ध सम्पन्न करती है और वह सम्बन्ध वित प्रमाण न होने से संयोगादिरूप न होकर स्वाध्यस्तत्वरूप होता है। अर्थात्, जब मन्तःकरण की वृत्ति द्वारा जीय चैतन्य का घदादि के साथ सम्बन्ध होता है तब जीव चैतन्य और घटादि उपाधि एकत्र संनिहित होने से दोनों से उपहित चैतन्य में अभेद हो जाता है, अतः घटादि जैसे स्वावच्छिन्न चंतन्य में अध्यस्त होता है उसी प्रकार उस चैतन्य से अभिन्नता को प्राप्त जीवचैतन्य में भी अध्यस्त हो जाता है। इस प्रकार घटादि विषय जीवनिष्ट हो जाने से जीव को उस का प्रत्यक्ष होता है । अतः घटावि में अपरिच्छिन्न जीव के प्रति परोक्षता का पापादन नहीं हो सकता।
[ अन्तःकरणत्ति के साथ जीव सम्बन्ध का स्पष्टीकरण ] अभिप्राय यह है-इस पक्ष में व्यवहारसरलता के लिये घटाचवच्छिन्न चैतन्य में जीवचैतन्य का प्रावरण अथवा अज्ञान नहीं माना जाता । अतः उन की निवृत्ति घटादिविषयाकारवृत्ति का प्रयोजन नहीं होता। किन्तु जीवचैतन्य असङ्ग है, अतः घटादि का अधिष्ठान न होने से घटाधाकार वृत्ति होने के पूर्व घटादि के साथ जीव चैतन्य का सम्बन्ध नहीं होता किन्तु अन्तःकरण को वृत्ति जोयचंतन्य में ही अध्यस्त होती है अतः उस के साथ जीव का सम्बन्ध होता है । जब इन्द्रिय द्वारा निकल कर अन्तःकरण की वृत्ति घटादि को संसृष्ट होती है तब घट में अथवा घटाकार वृत्ति में जीवचंतन्य और विषयचैतन्य में प्रभेद हो जाता है। क्योंकि घटरूप एक देश में स्वसम्बद्धवत्तिसंसर्ग द्वारा जीवचतन्य का और विषयचैतन्य का आध्यासिक सम्बन्ध से संनिधान हो जाता है, एवं वृत्ति में घट का सम्बन्ध होने से घटावच्छिन्न चैतन्य का और जोषचंतन्य का प्राध्यासिक सम्बन्ध होने से संनिधान हो जाता है अत एव घटात्मक अथवा वृत्तिआस्मक एक देश में विषयचंतन्य और जीव चतन्य का अभेव उपपन्न होता है और इसी से घटादि पदार्थ जीव के प्रति अपरोक्ष होता है।
अथ ब्रह्माध्यस्तो घटः प्रमाणवृत्या जीवाध्यस्तो भवतीत्येवाभ्युपेयम् , किमुभयचैतन्या:भेदापच्या ? इति चेत् १ न वृत्तेहिनिःसरणाभ्युपगमवैयर्थ्यप्रसङ्गात् , तदनुपगमे च बहिःस्थस्प