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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ इलो० १
होने से उन तीनों से अवच्छिशचैतन्य का अमेव हो जाता है और यह श्रभेद घटायच्छेवेन अर्थात् घटदेशावच्छेवेन होता है। क्योंकि घटदेश में ही तीनों उपाधियाँ एकत्र होने से तीनों चैतन्य एकत्र होते हैं। इस प्रकार प्रमातृचैतन्य घटदेश में घट से अवच्छित हो जाता है, किन्तु अपने मूलवेश शरीर में घट से अवनि नहीं होता, क्योंकि घट शरीर में नहीं रहता । यतः घटदेश में ही वह घटावछल होता है अत एव उस देश में हो वह वृत्तिप्रतिबिम्बित विषयचैतन्य द्वारा घट के अपरोक्षभान का आश्रय बनता है । यदि घटदेश में घट से अवच्छिन्न बना हुआ प्रमातृचैतन्य शरीरदेश में भी, जहाँ वह घट से अवच्छित नहीं है, घट के अपरोक्षज्ञान का आश्रय होगा, तो इस का अर्थ यह हुआ कि प्रमातृचैतन्य जिस देश में जिस विषय से अवच्छिन्न नहीं होता उस देश में भी उस विषय के अपरोक्षज्ञान का श्राश्रय होता है। इसका फल यह होगा कि, जैसे प्रमातृचैतन्य शरीर देश में वृत्तिसंसृष्ट घट से अवछिन न होने पर भी घट के अपरोक्ष ज्ञान का आश्रय होता है उसी प्रकार यह वृत्ति से असंसृष्ट अन्य समस्त विषयों से भी शरीर वेश में अनवच्छिा है । अतः शरीर देश में वह अन्य समस्त विषयों के भी अपरोक्षज्ञान का आश्रय हो जायगा इस प्रकार प्रमाता का वृत्ति द्वारा किसी एक विषय के साथ सम्पर्क होने पर और वृत्ति में उस सम्पृक्त विषय के प्रतिबिम्बित होने पर प्रमाता में सर्वज्ञत्थ की आपत्ति होगी ।
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यतः प्रमातृचैतन्य और विषयचैतन्य इन दोनों को अमेदाभिव्यक्ति घटदेश में ही होती है, शरीर देश में नहीं होती, अत एव वृत्तिप्रतिबिम्बित विषयावरिलम चैतन्थ को हो फल कहा जाता है । क्योंकि वृत्ति के विषयवेश में अवस्थान के समय प्रमातृतस्य विषय चेतव्यात्मक होता है और विषयदेश में हो वृत्ति में प्रतिबिम्बित होता है, अपने मूलदेश शरीर में प्रतिबिम्बित नहीं होता है । उक्त रीति से घटदेश में घट का अपरोक्ष भान होने के बाद शरीरदेश में घट का स्फुरण 'घटमहं जानामि' इस रूप में घटाकार वृत्ति के विषयरूप में ही होता है ।
यह विषय संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है कि घटस्फुरण दो प्रकार से होता है(१) ज्ञान अथवा अज्ञान के विशेषणरूप में साक्षि द्वारा और (२) विषयदेशावच्छेदेन विषयाकारवृत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यरूप फल द्वारा प्रथम स्फुरण शरीरदेश में होता है और उस का प्रयोजक जीव साक्षि शरीरदेश में रहता है और दूसरा घटदेश में होता है क्योंकि उसका प्रयोजक विषयवेशावच्छेदेन वृतिप्रतिबिम्बित चैतन्य विषयदेश में होता है ।
" कथं तर्हि घटं साक्षात् करोमि इति शरीरावच्छेदेन प्रत्ययः, बहिरयच्छेदेनैव घटादेरपरोक्षत्वात् !” इति चेत् १ साचात्कारत्वस्य वृत्तिगतधर्मत्वाद तद् विषयाऽपरोक्षत्वनिमितकम्, न तु वृत्तेः स्वाध्यस्तत्वकृता परोक्षत्वकृतम्, वाक्यादावपि तथा प्रसङ्गात् । तच्चानुमितित्ववत् साक्षिगम्यमिति । एवमिदमंशावच्छेदेनोत्पन्न' रजत मित्रमंशावच्छेदेनैवाऽपरोक्षम, तत्तच्छरीरप्रदेशावच्छेदेन विद्यमानं सुखभित्र तत्तदवच्छेदेन इत्यत्तोऽन्तरवच्छेदेन तद्भानं वृत्तिमाक्षिपतीति । न चेदंष्टविविशेषणतयाऽन्तस्तदवभासः, तस्यास्तदाकारत्वाभावात् । ईश्वरे मायावृतिस्तु वर्तमानस्य स्वाध्यस्त ( ख )स्य जीवे सुखादिवदपरो चत्वेऽप्यतीतानागतभानार्थं प्रतिकल्पं