________________
[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ८ श्लो० १
वृत्ति सर्वदा नहीं होती । साक्षिभास्य पदार्थों के भान में वृत्ति की अपेक्षा होने के कारण ही ईश्वर मी माया की सर्वाकार वृत्ति से ही सर्वज्ञ होता है ।
५०
कुछ अपर विद्वानों का यह मत है कि अज्ञान सुखादि को और शुक्ति-रजतादि को विषय करने वाली वृत्ति भी अविद्या का परिणाम न होकर अन्तःकरण का ही परिणाम होती है। इसीलिये स्वप्नज्ञान मन में आश्रित होता है। अज्ञान का परिणाम होने पर उस का मन में आश्रित होना सम्भव नहीं हो सकता ।
अन्य विद्वानों का यह मत है कि सुषुप्ति में अन्तःकरण का सूक्ष्मावस्थापत्तिरूप लय हो जाने के कारण उस की वृत्ति नहीं हो सकती । अतः उस समय अविद्या की हो श्रज्ञानसुखाद्याकारवृत्ति मानना आवश्यक है। अतः अविद्या की वृत्ति से ही सर्वदा साक्षियेद्यत्य की उपपत्ति हो सकती है। अतः मित्र समय में भी अन्तःकरण को अज्ञानसुखाद्याकार वृति मानना निष्प्रयोजन है ।
[ अज्ञानादि के भाव के लिये वृत्ति अनावश्यक - मतान्तर ]
कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि वृति का सामर्थ्य मानने में कोई प्रमाण नहीं है । अतः तन्य में वृत्ति का आध्यासिक सम्बन्ध ही वृतिभान का प्रयोजक होता है । अतः जैसे अंतन्य में वृद्धि का प्राध्यासिक सम्बन्ध वृत्तिभान का प्रयोजक होता है उसी प्रकार चैतन्य में अज्ञानादि का प्राध्यासिक सम्बन्ध अज्ञानावि के भात का भी प्रयोजक हो सकता है । अतः वृत्तिकल्पना के लिये कोई अवकाश न होने से अज्ञानादि के भान के लिये अविद्या अथवा अन्तःकरण किसी की भी प्रज्ञानाद्याकारवृत्ति मानना अनावश्यक है। अज्ञानादि का वृत्तिनिरपेक्ष भान मानने पर अज्ञान के विशेषणरूप में घटादि सभी विषयों के भान की जो सर्वदा आपसि बतायी गई वह इष्ट ही है। आशय यह है कि प्रमाणजन्य किसी भी विषय का ज्ञान रहने पर अज्ञान में सर्वविषयकत्व का अभाव होने से उस समय सर्वविषयक प्रज्ञान भान की प्रापत्ति नहीं हो सकती तथा जब प्रमाणजन्य ज्ञान का अभाव होता है अर्थात् जिस काल में किसी भी विषय का प्रमाणजन्य ज्ञान नहीं होता ऐसे सभी काल में सर्वविषयक अज्ञान का अनुभव होता ही है, जैसे सो कर उठने पर होने वाले 'सुखमहम् श्रस्वाप्तं न किश्विदवेदिवम्' इस स्मरण से सुषुप्ति में सर्वविषयक ज्ञान का भान सिद्ध होता है। क्योंकि उस समय प्रमाणजन्य ज्ञान का सर्वथा प्रभाव होता है। इस प्रकार प्रतिबन्धकशून्य सम्पूर्णकाल में सर्वविषयक प्रज्ञान का भान मनुष्यत्वादि के अभिमान के समान सम्भव है । अभिप्राय यह है कि जैसे मनुष्य को 'नाहं मनुष्यः' इस प्रकार का विरोधी ज्ञान कभी न होने से 'हं मनुष्यः' यह ज्ञान सर्वदा होता है इसी प्रकार सर्वविषयविशिष्टाज्ञानानुभव के प्रतिबन्धकाभावकाल में सदा उक्तरूप में प्रज्ञान का अनुभव होता ही है ।
[ विषय विशेषज्ञानदशा में समस्त विषयविशेषित अज्ञान का भान स्वीकार्य ]
यदि यह शंका की जाय कि किसी विषय विशेष के प्रमाणजन्यज्ञानवशा में अन्य सभी विषयों से विशिष्ट अज्ञान का भान क्यों नहीं होता ?'-तो इस का समाधान यह है कि किसी एक fatafaशेष के प्रमाणजन्यज्ञानदशा में अन्य सभी विषयों से विशेषित प्रज्ञान का भान होता ही है । क्योंकि अज्ञानादि के वृत्तिनिरपेक्ष साक्षिवेधला पक्ष में प्रज्ञानादि का भान अज्ञानादि सम्बद्ध साक्षि