Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 83
________________ स्था क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ७३ कामना वाला चित्रा संज्ञक याग करे" इत्यादि वचनों से विहित पशुपालक कर्मों में विकल्प होता है अर्थात् पशुकामना वाले को उन में कोई एक ही कर्म करणीय होता है उसीप्रकार 'हमेतं०' इत्यादि वचनों के अनुसार यज्ञ-दानादि विविदिषा-कामना वाले पुरुष के लिये विकल्परूप से कर्तव्य होते हैं ? अथवा जैसे स्वर्गकाम को 'आग्नेय' 'ऐन्द्र' आदि कर्म समुच्चयरूप में कर्त्तव्य होते हैं उसीप्रकार यज्ञदानादि भो विविदिषा-कामना वाले के लिये समुच्चयरूप में कर्तव्य होते हैं। समलनया में यनदानादि की कर्तच्यता ] इस प्रश्न के उत्तर में कुछ विद्वानों का यह कहना है कि यज्ञदानादि समेतं.' इत्यादि एकवावय से ही निधिष्ट हैं। अतः असे सर्वेभ्यो नर्शपूर्णमासौं इस वाक्य से निर्दिष्ट दर्श-पूर्णमास स्वर्णकामना वाले के लिये समुच्चयरूप में कर्तव्य होते हैं उसीतकार विविक्षिा कामी के लिये यज्ञ-दानादि भी निविष्ट होने से समयलप में काव्य.. क्योंकि उक्त वाक्य में अग्निहोत्रं जाहोति' इस धाषय के समान अर्थैक्य अर्थात विशिष्ट एकार्य का प्रतिपादकत्व होमे से अथवा एकप्रयोजनबदर्थप्रतिपांवकता होने से उस में एकवाययता है। __किन्तु 'अरुणया एकहायच्या गवा सोमं क्रोणाति' = रक्तवर्णा एकवर्षक्यस्का एक गौ से सोम (लता) का क्यण करे।' इस वचन में आरुण्यादिरूप अर्थभेद से विशिष्ट एक सोमक्रयणरूप क्रिया का • विधान होने से विधयेक्य होने से एकवाक्यता होती है । यद्यपि विशिष्ट का विधान गौरवग्रस्त होता है फिर भी प्रकारान्तर से एकवाक्यता को उपपत्ति के लिये अन्य कोई गति न होने के कारण विशिष्टविधान का आश्रयण आवश्यक होता है। क्योंकि विशेषणमात्र का विधान वहीं होता है जहाँ क्रिया अन्यत्रकरण से प्राप्त होती है। जैसे 'दना जुहोति' इस वाक्य से दधिविशिष्ट होम का विधान नहीं किन्तु होमको उद्देश कर के दधिरूप विशेषरण काही विधान होता है, क्योंकि होम प्रकरणान्तर से प्राप्त है। विशेषणविधि में भी यह ज्ञातव्य है कि विशेषणविधि से एक ही विशेषण का विधान शक्य हो सकता है-अनेक का नहीं। क्योंकि अनेक विशेषण का विधान मानने पर विधेयमेव और अर्थभेद हो जाने से वाक्यभेद का प्रसङ्ग होता है, क्योंकि जब क्रिया अप्राप्त होती है तब उस क्रिया का अनेकविशेषणविशिष्ट क्रिया के रूप में विधान होता है। किन्तु क्रिया प्रकरणान्तर से प्राप्त रहेगी तो उस में अनेक अर्थ का विधान करने पर विधिप्रत्यय का आवर्तन रूप वावयमेव प्रसक्त होगा । जैसा कि मीमांसाशास्त्र में प्राप्ते कमणि' इत्यादि बचन द्वारा कहा गया है। इस वचन में 'कर्मणि' यह उपलक्षण है इसलिये कर्म पव से कर्म और कर्म से इतर दोनों का ग्रहण होता है। प्रतः किसी भी प्राप्त को उद्देश्य कर अनेक का विधान प्रशक्य होता है। इसी लिये 'ग्रहं संमाष्टि' इस वाक्य में ग्रह-यज्ञीय पानविशेष को उद्देश्य कर एकत्व और संमार्गफुशादि से संमार्जन का विधान मानने पर बावयमेद होता है। जिस प्रकार एक को उद्देश्य कर अनेक विधान वाक्य भेद को आपसि के कारण अशक्य होता है, उसोप्रकार अनेक को उद्देश्य कर एक का विधान भी अशक्य होता है-जैसे उक्त वाक्य में ही एकत्य और ग्रह दोनों को उदय कर संमार्ग मात्र का विधान करने पर। [विधेयस्य से एकवाक्यता प्रस्तुत में नहीं है ] 'तमेतं ब्राह्मणाः विधिदिषन्ति' इस वाक्य में 'अरुपया एकहायन्या' इत्यादि वाक्य के समान एक विशिष्ट क्रिया का विधान नहीं होता क्योंकि वह सम्भव नहीं है और इस वाक्य में विधायकता अजीकृत भी नहीं है । अतः प्ररणादि वाक्य के समान इस में एकवाक्यता नहीं हो सकती । एवं इस वाक्य में 'दध्ना जुहोति' इस वाक्य के समान किसी क्रिया में एक विशेषण का विधान भी उक्त हेतु

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