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स्या०६० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
न, ईश्वरस्य मायावृत्तिविषयतयाऽतीता-ऽनागतानामपरोक्षवत् प्रकृतेऽपि तथात्वात, भ्रमप्रमानु मित्यादावविद्यान्तःकरणवृत्तिविपयतया वह्न : साक्षिसंबन्धेऽपिलिङ्गादिप्रतिसंधानापेक्षत्वादपरोक्ष. स्वव्यवहाराभावात् , अज्ञानविपयतया घटबयादेः साक्षिसंघन्धे तूक्त हेतोरभावात् तद्भावात् । ततो विषयपक्षपातितया नमोनिष्ठसंकीर्णताभावाज्ञानस्य नभोऽवच्छिन्नचेतन्यनिष्ठापि संकीणेता साक्षिणि स्वाकाराविद्यावृत्तिविषयतया स्वाध्यस्ता लिङ्गादिप्रतिसंधानाभावादपरोक्षैव व्यवह्रियते । 'अधिष्ठानझानं विना कथं नभसि संकीर्णतानमः, न च केवलस्याधिष्ठानस्याविद्यावृत्तिरूपं ज्ञानं संभवति, प्रामाणिकत्वात् ?' इति चेत्त ? न तज्ज्ञानस्यानुमितिरूपत्वात् , भ्रमात् प्रागधिष्ठानस्य परोक्षत्वेऽपि भ्रमदशायामपरोक्षत्यात. प्रागपरोक्ष एवाधिष्ठानेऽपरोक्षभ्रम इति नियमामावादिति । ततः स्थितमेतदाफाशमसंकीर्णमप्यविद्यावृत्त्या संकीर्णमिव पश्यतीति ॥ २ ॥
[ आकाश-अपरोक्ष न हो सकने की पुनः आर्शका ] उक्त प्रतिपादन के सम्बन्ध में शंका हो सकती है कि 'आकाश' अविधा की वृत्ति के विषयरूप में साक्षि द्वारा ग्रहीत होने के कारण अपरोक्ष नहीं हो सकेगा। क्योंकि 'हृयो वह्निमान्' = इत्यादि भ्रमात्मक अनुमिति स्थल में हव में भासित होने वाला अनिर्वचनीयाह्न अविद्यावृत्ति के विषयरूप में साक्षि का विषय होने पर भी अपरोक्ष नहीं होता। किन्तु यह शंका कुछ क्षति नहीं कर सकती, क्योंकि जैसे प्रतीत-अनागत पदार्थ माया की वृत्ति के विषयरूप में ईश्वर साक्षी का विषय होने से ईश्वर को अपरोक्ष होते हैं उसी प्रकार केशादि संकीर्णरूप में गृहीत होने वाले प्राकाश की भी अपरोक्षता हो सकती है।
यद्यपि भ्रमात्मक और प्रमात्मक अनुमिति आदि स्थलों में भी बात का क्रम से अविद्या और अन्तःकरण को वृत्ति के विषय के रूप में साक्षी से सम्बन्ध होता है तथापि लिंगव्याप्ति-पक्षधर्मता के निश्चय की अपेक्षा होने से उसमें अपरोक्षरव्यवहार नहीं होता। किन्तु जब घट और वह्नि आदि का 'घटमहं न जानामि'- 'वह्निमहं न जानामि' इस प्रकार अज्ञान के विषय में साक्षी के साथ सम्बन्ध होता है लब उस में लिङ्ग प्रावि के निश्चयरूप हेतु की अपेक्षा न होने से उन में अपरोक्षस्वव्यवहार होता है । निष्कर्ष यह है कि प्राकाश में केशादि संकीर्णता के अभाव का अज्ञान अधिष्ठानरूप विषय का पक्षपाती होता है । अतः उससे जो अनियंचनीय केशसिंकीर्णता उत्पन्न होती है यह आकाश से अवच्छिन्न चैतन्य में ही रहती है । तथापि अदिद्यावृत्ति के विषयरूप में साक्षी में अध्यस्त होने से अपरोक्ष होती है। उस में लिङ्गादि के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। अत एव वह अपरोक्ष शब्द से व्यवहत होती है।
[ केशादि संकीर्णता का प्रत्यच भ्रमरूप कैसे ? ] इस संदर्भ में यह शंका हो सकती है फि-"केशादि संकीर्णता के भ्रम का अधिष्ठान आकाश होता है किन्तु अतीन्द्रिय होने से उसका प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव नहीं है अतः उस में केशादि संकीर्णता का प्रत्यक्ष भ्रम कैसे हो सकता है ? इस के उत्तर में यह भी नहीं कहा जा सकता कि संकोणताभ्रम के पूर्व केवल प्राकाश का अविद्यावृत्तिरूप ज्ञान होता है, क्योंकि प्राकाश ब्रह्म में