Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 65
________________ स्था २० टोका एवं हिन्दी बिवेचन ] बेहात्मना और जोय में मनुष्यात्मना जीवाध्यास मानना प्रावश्यक होता है। इसलिये प्रभातृतादास्म्याभिनिविष्ट मनुष्यत्वरूप से ही जीव केवल साक्षिवेद्य होता है, क्योंकि उस रूप से अवभास के लिये प्रमाणजन्यवृत्ति की अपेक्षा नहीं होती, किन्तु बेहत्वरूप से तो वह प्रमाणवेध ही होता है । इसीप्रकार अन्तःकरणादि भी अन्तकरणत्वाविरूप से ब्रह्म में अध्यस्त होता है और अहत्वादिरूप से जीव में अध्यस्त होता है । अतः उक्तरीति से बेह में प्रज्ञानोपहित चैतन्यरूप साक्षिवेधता सिद्ध होती है । ननु नाजानं साक्षित्व उपाधिः, सुषप्तेऽज्ञानसुखसाक्षिस्फूर्तेः पुरुषान्तरस्य 'सुखमहमस्वाप्सम्' इति स्मरणप्रसशात ! किन्सन काणाव. मरणोपहिने संस्कारस्तत्रैव स्मरणनियमेनाऽनतिप्रसङ्गादिति चेत् न, सुषुप्तावज्ञानाधाकारवृस्या परिच्छिन्नयान्तःकरणादिसंस्कारावच्छेदेनोत्पध नश्यन्त्या तदवच्छेदेन संस्काराधानात् तदवच्छेदेन स्मरणादनतिप्रसङ्गात, जीवेश्वरसाधारण्येनाज्ञानस्य साक्षित्वोपाधित्वात् । तदुक्तम्-'मोहसंक्रान्तमूर्ति: साची' ति । [साक्षित्व में उपाधि अज्ञान या अन्तःकरण ? ] अज्ञानोपहितचैतन्य को साक्षी मानने के सम्बन्ध में यह शंका होती है कि "प्रज्ञान साक्षित्व म उपाधि नहीं हो सकता, क्योंकि सुषुप्त को अज्ञान और सुख को स्फुति साक्षी से होती है। यदि साक्षी अज्ञानोपहित होगा तो पुरुषान्तर अन्यपुरुष जिस को सुषुप्ति में अज्ञान-सुख को स्फुति नहीं हुयी है उसे भी 'सुसमहमस्वाप्सं न किश्चिदवेदिषम्' इस प्रकार सुख और अज्ञान के स्मरण को आपत्ति होगी। क्योंकि पुरुषान्तर भी अज्ञानोपहितचैतन्यात्मक है। अतः अज्ञानोपहितचैतन्य से होनेवाले उक्त अनुभवजन्य संस्कार पुरुषान्तर में भी होगा । अतः अज्ञान को साक्षित्व में उपाधि न मानकर अन्तःकरण को ही उपाधि मानना उचित है । तब अन्तःकरण उपहितचंतन्य साक्षी होगा तो जिस अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में संस्कार होगा उसी में स्मरण का नियम होने से अन्य को स्मरण की आपत्ति नहीं हो सकेगी।"-किन्तु विचार करने पर यह शंका नहीं उपपन्न होती क्योंकि सुषुप्ति में जो अज्ञानाद्याकार वृत्ति होती है वह परिच्छिन होती है, क्योंकि वह संस्कार सूक्ष्मावस्था में विद्यमान अन्तःकरण से अवच्छिन्नतन्य में ही उत्पन्न और नष्ट होता है । अतः तादृशान्तःकरण से अवच्छिन्न चैतन्य में ही संस्कार के आधान द्वारा तदछिन चैतन्य में हो स्मरण का प्रयोजक होती है। अतएव अन्य पुरुष में सुषुप्त पुरष से अनुभूत सुर और अज्ञान के स्मरण का अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता। [ साक्षी अनानादि के स्फुरण में नहीं स्मरण में प्रयोजक । यहाँ यह जातव्य है कि उक्त शंका का यह समाधान अज्ञानादि के वक्तिसापेक्ष साक्षिवेधता मल में है। अतः वत्तिनिरपेक्ष साक्षियेद्यता पक्ष में उक्त शंका का समाधान यह है कि साक्षितन्य जिस अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में अज्ञानादि के स्फुरण का सम्पादक होता है उसी अन्तःकरण से उपहितचैतन्य में अशानादि के संस्कार के आधान द्वारा कालान्तर में अज्ञानादि के स्मरण का प्रयोजक होता है। यद्यपि वृत्ति निरपेक्ष साक्षी कालान्तर में भी सुलभ रहता है किन्तु कालान्तर में विषय विधमान न रहने से अथवा विषय के स्फुरण के प्रतिबन्धक का संनिधान रहने से अब विषय

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