Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 34
________________ २४ [ शास्त्रवास्ति लो०१ रहता। जायगा तो वर्तमानज्ञान की निरर्थकता होगी। क्योंकि उसके होने पर भी आवरण की निवृत्ति न होने के कारण विषय का प्रकाश नहीं हो सकेगा। यदि अनेक अनादि अावरण माने जायेंगे तो वर्तमान ज्ञान से एक आवरण की निवृत्ति होने पर भी वह आवरण तो बना ही रहेगा जिसकी निवृत्ति उस विषय के भाषी ज्ञान से होने वाली है। इस प्रकार वर्तमानज्ञान काल में उसके विषय को तुलाज्ञान के एक आवरण से मुक्त और तूलाज्ञान के दूसरे प्रावरण से युक्त मानने में अनुभवविरोध स्पष्ट है क्योंकि एक आवरण की निति होने से विषय का प्रकाश भी प्राप्त होगा और अन्य प्रावरण के बने रहने से उसका अप्रकाश भी प्राप्त होगा। यदि उक्त व्यवहार की सरलता के लिये तूलाज्ञान के आवरण को जन्य माना जायगा तो उसकी अपेक्षा तूसाज्ञान को ही जन्य मान लेना युक्ति संगत है । तुलाज्ञान को जन्य मानने पर जो उस में अज्ञान लक्षण की अनुपपत्तिरूप दोष बताया गया था वह अकिश्चित्कार है क्योंकि उक्त लक्षण मूलाजानमात्र का लक्षण है। प्रज्ञान सामान्य का लक्षण भ्रमोपादानत्व है और वह तूलाज्ञान में भी सुघट है। अब सत्य तो यह है कि भ्रमोपादानत्व ही अज्ञान का युक्त लक्षण है, उक्त लक्षण मूलाज्ञान का भी लक्षण नहीं हो सकता क्योंकि वह अविधा के सम्बन्धादि में प्रतिव्याप्त है। उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि घटाज्ञान प्रादि तुलाशात अनादि होगा तो घटज्ञान वशा में प्रावरण का प्रभाव होने से घटाज्ञान निविषयक हो जायगा, क्योंकि उस समय घटाज्ञानजन्य आवरणरूप अतिशय घर अत एव घटनिष्ठ आवरणरूप अतिशयजनकत्वस्वरूप घटविषयकस्व अज्ञान में असम्भव है। किन्तु घटादिविषयक तुलाज्ञान को अनित्य मानने पर घटज्ञान दशा में घटाज्ञान के स्वयं न रहने से उसमें उक्तवशा में निविषयत्व की आपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-उस दशा में अज्ञान निविषयक ही है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निविषयक होने पर वह साक्षिभास्य नहीं हो सकता क्योंकि साक्षी ज्ञान और अज्ञान का विषयद्वारा ही प्रवभासक होता है। उक्त विचारों के अनुसार यह तो सिद्ध है कि मूलाज्ञान का विषय और प्राश्रय दोनों चैतन्य. मात्र हो है। वाचस्पतिमिधास्तु-'जीवाश्रयं ब्रमविषयं च तत् । न च जीवनिष्ठत्वेऽविद्याया जीवे प्रपश्चोत्पत्यापत्तिा, अहंकारादिप्रपश्चोत्पत्तेरिष्टत्यात् आकाशादिप्रपश्चोत्पत्तेस्तु विषयपत. पातिन्याऽविद्ययेश्वर एव संभवात् , तस्य सर्वज्ञत्वश्रुतेः, अज्ञातायां शुक्ती रजतोत्पादवदज्ञाते ब्रमण्याकाशादिसकलप्रपश्चोत्पत्त्याविरोधात् । यधपि चित्त्वापेक्षया-ऽविद्योपहितचिवस्याविद्याभयतावच्छेदकत्वे गौरवम् , तथापि 'अहमज्ञः' इति प्रतीतः, ईश्वरे च तथाऽप्रतीतेः प्रामाणिकत्वाद् न दोषः। न च 'अहमज्ञः' इति प्रतीतेरन्तःकरणावच्छिन्नचैतन्यस्यैवाविद्याश्रयत्वम् , तस्य जन्यतयाऽनाधविद्याश्रयत्वायोगात्' इत्याहुः । [ जीव अज्ञान का आश्रय है, ब्रह्म विषय है-वाचस्पति ] वाचस्पतिमिश्र का मतः--यह है, कि अजान का आश्रय जीव, एक विषय ब्रह्म होता है। अविद्या जीवनिष्ठ होने पर उसमें प्रपञ्च की उत्पत्ति को आपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि जोव में अहंकारादि मान्तर प्रपञ्च को उत्पत्ति इष्ट है और प्राकाशादि बााप्रपञ्च को उत्पत्ति उसमें

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