Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 33
________________ स्थाका. टोक एवं हिन्दी विवेचन ] २३ इलाज्ञान का भी अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि उसे स्त्रीकारने पर ही 'इममर्थ पूर्व ज्ञातवान - मुझे पूर्णकाल में इस प्रथं का ज्ञान था, किन्तु 'इदानीं न जानामि'-इस समय इस अर्थ का प्रशान हैइत्यादि व्यवहार सरलता से उपरश होता है। आशय यह है कि याद तुलाशानन मानकर एकमात्र मूलाज्ञान को ही माना जाय और उसीसे घटादि विषयों के अज्ञानादिव्यवहार की उपपत्ति की जायगी तो 'मुझे इस विषय का ज्ञान पूर्ण में था और अब अज्ञान है' यह व्यवहार उपपन्न नहीं हो सकता क्योंकि इस व्यवहार से यह सूचित होता है कि पूर्वकाल में इस विषय का ज्ञान नहीं था किन्तु इस काल में इस अर्थ का प्रज्ञान है। यह सूचितार्थ मूलानाननात्र के अभ्युपगम पक्ष में सम्भव नहीं है, क्योंकि मूलाज्ञान ब्रह्मज्ञानमात्र से नाश्य होने के कारण ब्रह्मज्ञान के पूर्व सभी काल में है, अतः उसका एक काल में प्रभाव ओर कालान्तर में सद्भाव सम्भव नहीं हो सकता । तुलाज्ञान मूलाज्ञान का कार्य है और वह तत्तविषयों में मूलाज्ञान से उस समय उत्पन्न होता है जब सत्तविषयों के प्रमाणभूत ज्ञान को सामग्री उपस्थित नहीं रहती। अन्य विद्वानों का मत है ति दुलाज्ञान मूलाज्ञान को ही विभिन्न शक्तियां हैं । अतः मूलाजान के समान में भी अनादि हैं । यही मानना उचित है, क्योंकि यदि तुलाज्ञान अनादि न होकर मूलाज्ञान का कार्य होगा तो 'अनादिभावत्वे सति ज्ञाननिवर्यत्वम्'-अज्ञान के इस लक्षण से संगहीत न होने के कारण प्रज्ञानपद से ग्यपदिष्ट ही न हो सकेगा। • "त, तेषामावरणविक्षेपहेतुत्वेन शक्तत्यान, शक्ती शक्त्ययोगात् , अज्ञानत्वात् तदनादित्वे तदावरणस्याप्यनादित्वापत्त, इष्टापत्ती घटबोधदशायामपि समयान्तरभाविज्ञाननिवावरणप्रसङ्गात् , . अनुमविरोधात् । व्यवहारसोकर्याय तज्जन्यत्वाश्रयणे च तूलाज्ञाना. नामपि जन्यत्वस्यायितं युक्तस्यात् , भ्रपोपादनत्वस्यैवाशानलक्षणत्वात् , प्राणुस्तस्याविधा. संबन्धादातिव्याप्तः । किन, घटयोधदशायामाचरणामावेऽनादेयंट ज्ञानस्य निर्विषयत्वप्रसङ्गः, तज्जन्यावरणरूपातिशयाभावात् । न चाज्ञानं निविषयं संभवति, साक्षिमास्यं वा" इत्पपरे । तत् सिद्धं चिन्मात्राश्रयविषयं मूलाज्ञानम् । [ मूलाज्ञानशक्तिरूप तूलाज्ञान अनादि है इस का खण्डन ] किन्तु दूसरे विद्वान अन्य विद्वानों के इस विचार से सहमत नहीं है क्योंकि तुलाशान 'आवरण और विक्षेप' का कारण होने से आवरण-विक्षेप को शक्ति के आश्रय होते हैं। यदि उन्हें स्वयं शक्तिरूप माना जायगा तो शक्ति में शक्ति न होने से उन में आवरणविक्षेपशवित न रह सकेगी प्रतः उन से प्रावरणविक्षेप न हो सकने से उनकी कल्पना ही निरर्थक होगी एवं प्रशान होने के कारण, यदि तुलाशात अनादि होगा तो तज्जन्यावरण भी अनादि होगा और उस आवरण को अनादि मानना इष्ट नहीं हो सकता । पयोंकि उस आवरण के अनादि होने पर घटज्ञानदशा में भी कालान्तर में होने वाले घटज्ञान से निवत्यावरण की आपत्ति होगी, जो अनुभवविरुद्ध होने से अनिष्ट है। आशय यह है कि मूलाजान के शक्तिरूप अनादि तूलाज्ञान से जन्य आवरण को अनादि मानने पर यदि वह आवरण एक होगा तो इसी विषय का एक बार ज्ञान हो जाने पर वह विषय पुनः अज्ञात न हो सकेगा । पदि भविष्य में विषय को अज्ञातता के अनुरोध से वर्तमानज्ञान को उसका निवर्तक न माना

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