Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 8
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 20
________________ [ शास्त्रवाति श्लो०१ [ आत्माऽज्ञान जन्यतावच्छेदक दृश्यदर्शनत्व होने में लाधव ] सच बात तो यह है कि यदि प्रात्मतत्व के अज्ञान को देहात्म-तादात्म्यक्रम के प्रति कारण माना जायगा तो उसका जन्यतावच्छेदक देहात्मतादात्म्यभ्रमत्व होगा अतः कार्यतावच्छेदक कुक्षि में आत्मा और देह तथा उन के तादात्म्य का प्रवेश होने से गौरव है। अतः लाघध से दृश्य-दर्शन के प्रति ही उसको कारण मानना उचित है, पयोंकि दृश्य-दर्शनत्व को कार्यतावच्छेदक मानने में लाघव है । यदि यह कहा जाय कि 'दृश्य-दर्शन में विद्यमान कार्यता के अवच्छेदक कोटि में दृश्य का दृश्यत्व रूप से प्रवेश होता है और दृश्यत्व वत्तिप्रतिबिम्बित चैतन्यविषयत्वरूप है, अतः दृश्य-दर्शनाव की कुक्षि में भी वृत्तिप्रतिबिम्ब और चैतन्य का प्रवेश होने से कुछ भी लाघव नहीं हैं तो यह ठीक नहीं है क्योंकि दृश्यदर्शनत्व की कुक्षि में दृश्य का वृत्तिप्रतिबिम्बितचैतन्यविषयत्व रूप से प्रवेश न कर आरमभिन्नत्थरूप से उसका प्रवेश करने पर साघव निर्विवाद है। [ ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य है ] आत्मतत्त्व का अदर्शन प्रात्मभिन्न सम्पूर्ण वस्तु के दर्शन का कारण होता है, इसीलिये ब्रह्मस्वरूप दर्शन में सकलप्रपश्वविषयत्व की उपपत्ति उसमें प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य मानने से सम्भय होती है, अन्यथा ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का कोई अन्य सम्बन्ध सम्भव न होने से उसमें सकलप्रपञ्च-विषयत्व की उपपत्ति नहीं हो सकती। प्रश्न में प्रपञ्च का काल्पनिक तादात्म्य से अतिरिक्त कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता यह तो स्पष्ट है, क्योंकि ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का संयोग सम्बन्ध सम्भव नहीं है, कारण, प्रपञ्च ब्रह्म में ही प्रदुत होने कारण महासे असा नहीं है। अप्राप्त की प्राप्ति ही संयोगरूप है अतः ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का सम्भवित सम्बन्ध अप्राप्तिपूर्वक न होने से वह संयोगरूप नहीं हो सकता। इसी प्रकार ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का समवायसम्बन्ध भी नहीं हो सकता | क्योंकि समवायसम्बन्ध नियुक्तिक है । 'नित्येषु कालिकाऽयोगात्'- नित्यपदार्थों में कालिक संबन्ध नहीं लगता इस नियम के कारण नित्य ब्रह्म के साथ प्रपञ्च का कालिक संबंध नहीं हो सकता । स्वरूप सम्बन्ध भी उन दोनों के बीच सम्भव नहीं है। क्योंकि स्वरूप को सम्बन्धता ही नियुक्तिक है। अतः अन्य कोई गति न होने से ब्रह्म के साथ प्रपश्व का काल्पनिक तादात्म्य ही मानना होगा। क्योंकि, प्रपञ्च ब्रह्म में प्रादुर्भूत होता है, ब्रह्म प्रपश्च का निमित्त कारण होने के साथ ही उपादान कारण भी होता है और उपादानकारण वही होता है जिस में कार्य का तादात्म्य हो, जहाँ कार्यकारण की सत्ता में साम्य होता है वहां उपादान कारण के साथ वास्तय तादात्म्य होता है, जैसे सुवर्ण के साथ कुण्डलादि का और मिट्टी के साथ घटशरावादि का। किन्तु जहाँ उपादान कारण में कार्य का वास्तवतादात्म्य सम्भव नहीं है वहां कल्पित तादात्म्य मानना आवश्यक है । ब्रह्म नित्य और निविकार है एवं प्रपश्च अनित्य और सविकार है अत: उन दोनों में कल्पित ही तादात्म्य हो सकता है। इस का अभ्युपगम इस लिये प्रावश्यक है कि इस कल्पित तादात्म्य के विना ब्रह्म में प्रपञ्च की उपादान कारणता नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-बाह्य में प्रपञ्च का यदि वास्तव तादात्म्यसम्बन्ध नहीं है तो ब्रह्मा को प्रपञ्च का निमित्तकारण ही माना जाय उपादान न माना जा."-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि ब्रह्म प्रपञ्च का उपादान कारण न होकर निमित्त कारण ही होगा तो प्रपञ्च में अपने अस्तित्व पर्यन्त जो सदरूप से ब्रह्म का अन्वय-सम्बन्ध होता है उसकी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि कार्य में उपादान कारण का ही अन्यय सर्वत्र उपलब्ध होता है ।

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