Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala
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षष्ठिशसक-18 मुलम्-नियमइ अणुसारेणं ववहारनएणं समयनीईए।
लाप्रकरणम्॥ कालक्खित्तणुमाणेण परिक्खिओ जाणिओ सुगुरू॥३४॥
सटीक तह वि हु नियजडयाए कम्मगुरूत्तस्स नेव वीससिमो। धन्नाण कयत्थाणं सुद्धगुरू मिलइ पुन्नेहिं ॥ ३५ ॥ अहयं पुणो अहन्नो ता जइपत्तो य अह न पत्तोय ।
तह वि मह हुज्ज सरणं संपइ जो जुगपहाण गुरू ॥३६ ॥ व्याख्या-निजमत्यनुसारेण स्वस्वाभाविकबुद्धयनुसारेण नतु कदवलेपकलङ्कितया धिया तथा व्यवहारनयेन--"आ. BI लएण विहारेणं ठाणा चंकमणेण यासक्का सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य॥३४६॥"इत्यादिरूपेण नि-15 |श्रयतस्तु परबुद्धेरप्रत्यक्षत्वेनानतिशयिनां ज्ञातुमशक्यत्वात् । तथा समयबुद्धया सव्वजिणाणं जम्हा बउसकुमीलेहिं बट्टए : तित्यमित्यादि' श्रुतश्रवणोत्पन्नया घुदधा तथा काल क्षेत्रानुमानेन अत्र कालोऽयं दुष्पमालक्षणस्तेनात्र वज्रपभनाराचसंहननिनामिव सेवात्तसंहनिनः संयम पालयितुं न शक्तास्ततो "जायम्मि देहसदेहयमि जयणाए किंचि सेविज्जे" त्याद्यागममालम्ब्य कालोचितमाचरन्ति ततस्तेन कालानुमानेन एवं । क्षेत्रानुमानेन यथा ता भासरासिगहबिहुरिए १०४ ॥
है।
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