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भाषानुवाद
शोधित श्रुत व्यवहारने, निर्मल समकित थाय ॥ जिण आणाराधन थकी,जे कारन जिन गाय ॥१३८॥ जेजे गुरु अब देखिये, ते न मिले श्रत न्याय ॥ पिण श्रद्धा इक छे चरण, दुपसह अंत गवाय ॥ १३९ ॥ तो मध्यस्थ मनेयि इक, युग प्रधान श्रत न्याय ।। रूडी रीते परिखवो, तजि प्रवाह हलवाय ॥१४० ॥ अब दसम चरज नामगणि, जनित नीग जन कर्म ।। लोक प्रवाहे निपुण पण, पडिआ तजि शुभ धर्म ॥ पडना लंबन आचरे, मिथ्यादृष्टि तेय ॥ जे समदृष्टि तेहनो, मनचडते पगथेय ॥ १४२ ॥ मुलभ सकल पि कनकमणि, आदि वस्तु विस्तार ॥ मार्ग निपुणनो संग जग, अति दुर्लभ अवधार ॥ मानविषोप समाववा, शुद्ध देव गुरु धर्म ॥ ते सेवे पण मद ययो, हा ते पूर्व कुकर्म ॥१४४ ॥
जिन आचरण थकी जुदो, जे जण तसु आचार ॥ रे सड करतो किम कहै, हुँ जिन भगत उदार ॥४५॥ से जाकू मान लोक तस, मानै लोक अनेक ॥ माने जास जिनेंद्र तसु माने कोइक छेक ॥ १४६ ॥
साधर्मीथी अधिक जस, परिजन उपर पेम ॥ तास न समकित मानिये, आगम नीति एम ।। १४७ ।। जिनपत्ति लोकाचारथी, जो तुं जाणे भिन्न ॥ तो किम लोकाचारने, तुं माने प्रभु मन्न ॥ १४८॥ जिनवरने प्रणमी वली, जे प्रणमे अन देव ॥ सन्निपात मिथ्यात हत, तस कुण वैद इहेव ॥१४९॥ गुरू एक वलि श्राद्ध इक, चैत्य विविचित्रेव ॥ तामें जो जिनद्रव्यते, दिए परस्पर नेव ॥ १५ ॥ ते गुरु नहि श्रावके नही, नहि प्रभु पूजक तेय ॥ मोह थिती मूढोतणी, जाणी श्रुत निपुणेय ॥१५१॥
६ ॥१२६ ॥
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