Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala

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Page 277
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir तसु जिन धर्म किहां थकी, ज्ञानसु दुःख वैराग ॥ कूटमान पंडित नटित, नरके खेलत फाग ॥ १२४ ॥ 18/ जे वांध्या खल कर्म करि, ते सबहीके थाय ॥ हित उपदेशसु दोषमय, बहु मा भण इण न्याय ॥१२॥ जमु कुसुद्ध मन केम सो, जिन वचने बूजेय ॥ तो तेने अर्थे गुणी, फोकट आस्म दमेय ॥ १२६ ॥ करनो अरु साधन तथा, रहो प्रभावण दूर ॥ शुद्ध धर्म श्रद्धान पिण, हरै कठिण दुःखपूर ॥ १२७ ॥ ते दिन क्यारे आवशे, ज्यारे सदगुरु पास ॥ उत्सूत्रासे रहित जिन, धर्म सुणिसु खास ॥ १२८ ॥ दीठा पण केइक गुरु, न गमे जाण होयेय ॥ केइ अदीठाहि जगमें, जिम जिणवल्लभश्रेय ॥ १२९ ॥ आरंभि अति पापिने, जिनवर मुगुरु समान ॥ जे जाणे ते जीव जिन, धर्म विमुख बेभान ॥१३०॥ वांदे पूजे जेहने, हीले तेनो वैण ॥ वादे पूजे किम तदा, जन थिति जूये सैन ॥ १३१ ॥ कह जन जे आराधिए, म कोपाइए तेह ॥ मानी जो तमु वेन जो, बंछित तुं वांछेह ।। १३२॥ दुष्ट उदय दुख प्रगट जन, दूसम दंड. छलेय ॥ तमु प्रणमु जे धन्यनो, समकित गुण न चलेय ॥१३३ ॥ समयमुद्वि व्यवहार नय, निजमतिने अनुसार ॥ कलाक्षेत्र अनुमानथी, सुपरिक्षित गुरुधार ॥ १३४॥ तो पण निज जडता करी, न गुरु कर्म विश्वास ॥ पुण्ये धन्य कृतार्थने, मिले मुगुरु गुणरास ॥ १३५॥ वलि हुँ अपुण्य तदा जदी,लाधो नवि लाधोय ॥ ते पिण ते मुझ सरण अब, जुगप्रधान गुरु जोय ॥१३६ सम्यक जाणे केवकि, जैनधर्म दुर्जेय ॥ तदपि जाणणा योग्य है,श्रुत व्यवहारे तेय ॥ १३७॥ For Private and Personal Use Only

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