Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
षष्टिशतक
॥ १२५ ॥
4
8
12
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
शोक विलाप करी उदर, शिर कूटी उर देह ॥ नाखे नरके जीवने, धिग् धिग् ते दुर्नेह ॥ ११० ॥ प्रिय मरणनुं एक दुःख, बीजुं नरक मझार ॥ इकतो पडवुं मालथी, बीजो डंड प्रहार ॥ १११ धर्मार्थी दूषम समै, दुर्लभ साधुने श्राद्ध ॥ नाम साधु श्रावक बहू, हग रागादि सबाध ॥ ११२ ॥ शुद्ध धर्मनी वात पण, धनने रति उपजाय ॥ मिथ्या मोहित मूढने, मिध्यात्वे रति थाय ॥ ११३ ॥ जिन मत जाण विमल हिये, तास एक गुरु दुःख || धर्म कहीने सेवतो, पापप्रते जो सुक्ख ॥। ११४ ॥ महाभाग, जिन वचन रत, संवेगी भवभीत || विरला जे समसक्तिए, व्रत पाले श्रुत रीत ॥ ११५ ॥ इक धुर विण सर्वांग पण शकट जेम न चलंत ॥ तेम धर्म मंडाण सब, विन समकित न फलंत ॥ ११६ ॥ धर्मतत्व श्रुत आत्महित, अहित न जाणे जेह ॥ ते अजाण पररोप किम, जिनमत कुसल करेह ॥ ११७ ॥ जसु बैरी निज आतमा त परदया न होय ॥ याचक चोरतणो इहाँ, उदाहरण जग जोय ॥ ११८ ॥ जे छे राज धनादिनो, हेतुभूत व्यापार ॥ ते अति पाप वणिज तजे, उत्तम भव भीतार ॥ ११९ ॥ मोहित धन स्वजनादिके, लुब्ध सत्य करि हीण | पाप भजे व्यापारमें, मध्यमपेदाधिन ॥ १२० ॥ अधम अधम कारण विना, करि अज्ञान अभिमान ॥ जे उत्श्रुत भाषन करे, धिग धिग तेनुं ज्ञान ॥१२१ जीव मरीची वोरनो, उत्श्रुत लेस उच्चार ॥ सागर कोडा कोडि जो, भमिओ भवकांतार ॥ १२२ ॥ वारवार ए श्रुत वचन, सांभलि जोतो हेय ॥ सेवे बहु उत्सूत्र पद, दोष न मानें जेय ॥ १२३ ॥
प
For Private and Personal Use Only
प्रकरण ॥
भाषानुवाद
॥। १२५ ।।

Page Navigation
1 ... 274 275 276 277 278 279 280 281 282