Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala

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Page 274
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 18 प्रकरण-11 षष्ठिशतक॥ १२४॥ BREGRESSES वस्या ब्राह्मण भाट डुब, जक्षसिक्ष इन काय ॥ भक्ष स्थान स्वभगत छे, विरतीथी अलगाय ॥८२॥ मुखे शुद्ध मारग चले, थया सुख मग जेय ॥ जात कुमार्गी मार्गमें, चाले अचरज तेय ॥ ८३ ॥ भाषानुवादः मिथ्यात्वीके विधन सप्त, पण बोलत नहि दुष्ट ॥ पडे विघन लव धर्मिके, तो नाचै अघ पुष्ट ॥८॥ समदृष्टी के विधन पण, उछव सरिखो होय ॥ अति उच्छव मिथ्यात्व जुत, महा विघ्न भय जोय ॥८॥ निज संपतकूहीलतो, नमे इंद्र पण तास ॥ जे समकित छांडे नही, पडे मरणकी त्रास ॥ ८६ ॥ मोक्षार्थी तृण जिम तजे, निज जीवित न समत्त ॥ जीवित वलि पण पामिये, हरयुं न समकित कत्त ॥ विभव रहित पण विभव जुत, समकित रत्न समेत ॥ समकित रहित छते धने, दारिद्री वनप्रेत ॥८॥ पूजा अवसर श्राद्धकू, कोइ दिये धन कोडि ॥ ते असार तजि सार जिन पूजा रचै निचोडी ॥८९॥ दर्शनादि गुण कारिणी, कहि जिनवर पूजाय ॥ वलि मिथ्यात्व करी कही, सा पूजा जिनराय । ९०॥ | जो जो जिन आज्ञा सहित, तेहिज मानै जोय ॥ शेष न मानै तत्व नह, लोकिके विद् सोय ॥११॥ आणा रहित अधर्म कुट, धर्म जिनाज्ञा तार ॥ एह तत्व जाणी करो, धर्म जिनाज्ञा सार ॥९२॥ भवभय रहित सुभट तथा, दुष्ट धीठ नर तेह ॥ छते सुगुरु स्वाधीन जे, शुद्ध धर्म न सुणेय.॥ ९३ ॥ मुकुल धर्म जाती गुणी, पर नर मेलिय सम्म ॥ पछे विसुद्ध चरण पछे, उपकारे शिव रम्म ॥ ९४॥ ४॥१४॥ नीका नारक जेहनो, दुख मुणि भवि जण केय ॥ हरि हर रुडि समृद्धि पण, तनु उत्कंट जणेय ॥९॥ * For Private and Personal Use Only

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