Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala
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लोक प्रवाह पवन उदंड, चंड प्रचंड लहरेय ॥ दृढ समकित अति वलविना, गुरुआ पण हल्लेय ॥ ६८ ॥ जिनमतनी निंदा करो, जो अज्ञानी दुख पाय । ते सांभरि ज्ञानी तणो, भय करि कंपे काय ॥ ६९ ॥ मिथ्यादृष्टि अज्ञानिनो, दोष जुवे शुं योध ॥ नहि जाणे शुं आपने, कष्टे समकित बोध ॥ ७० ॥ आचरता मिध्यात्वने, जे चाहत जिन धर्म ॥ ब्वर पीडित ते पय पिवा, वांछे विकल विशर्म ॥ ७१ ॥ जिम के कुल वधू, व्रत हत लियकुल नाम || आचरता मिथ्यात्व तिम, वहे सुगुरु अनुगाम ॥ ७२ ॥ आचरता उत्सूत्र जे, मानै आपसुसदृ ॥ रौद्र दरिद्रे दुःख ते, तुले साथ सूधन ॥ ७३ ॥
hr कुलाचारे रता, केइ रत जिन मतमांहि ॥ जुओ भ्रात इति अंतरे, लखे न्याय सठ नाहि ||७४ || अहितकारि जमु संग पण, जे तसु धर्म करेय ॥ चोर संग तजि चोरिने, करें पापि नर तेयः ॥ ७५ ॥ पातक नवमी पर्वमें, पसु मरता जसु पास ॥ तेने पूजित श्राद्ध जन, हा जिन हेला पास ॥७६॥ गृहकुटुंब स्वामी छतो, जे थापै मिध्यात ॥ नाख्यो तेणे वंश सब, भव समुद्रमें भ्रात ॥ ७७ ॥ बारस नवमी चौथ मृत, पिंड प्रमुख मिध्यात ॥ जे नर सेवे तेहने, नहि समकित अवदात ॥ ७८ ॥ जिम कादव तो शकट, काटे केक धोरि ॥ तिम कुटुंब मिथ्यात्वथी, काढे केइ सजोर ॥ ७९ ॥ जैसे महिल प्रगट भी, घन युत रवि न दिखाय ॥ तैसे उदय मिथ्यात्वके, नहि दीसत जिनराय ॥ ८०॥ किम ते जायो जानिये, जायो तो किं पुष्ट ॥ मिथ्या मगन थयो जदी, तिम गुण मच्छरि
दृष्ट ॥८१॥
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