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नाखै नरके मुग्ध जन, देखाडी मुनि वेष ॥ ते हतास खल धीठने, कहिये किसुं विशेष ॥ ४० ॥ ते प्रसंसिये कुगुरु पण, जसु मोहादिक द्वेष | सुगुरु परिभवी जीवके, थाए भगति विशेष ॥ ४१ ॥ जिम जिम खलनो अति उदे, जिम जिम तूठे धर्म ॥ तिम तिम समकित जीवको, उलसे समकित सम जग जननी सम जिनमते, जो अति उदय न होय ॥ कलि कालज जणनो अति, पाप महातम सोय जिसके माया धर्ममें, लागो ग्रह मिथ्यात ॥ सो उत्सूत्री भरम नह, कहे उलटि सवि वात ॥ ४४ ॥ जिन पूजादिक कार्य पण, सफल जिनाज्ञा थाय ॥ आणा भंगरहित दया, कार्य सवी दुखदाय ॥ ४५ ॥ कष्ट करे आपा दमै, द्रव्य तजे पण जोय ॥ तजै नही मिध्यात्व लव, बुडे जेहथी लोय ॥ ४६ ॥
वधे मीत. सतसंगधी, वर विधि धरम सुराग ॥ घटे कुसंगे प्रति दिवस, विदुनो पण ते राग ॥४७॥ शुद्ध गुरु जे सेवतो, ते अशुद्ध जण शत्रु ॥ तो बल रहित वसो नही, जहां असुद्ध जण तत्र ॥४८॥ जिन मत विदु असमर्थ जन, जहां समर्थ अजाण ॥ धर्म न वाषै तह लहे, गुणरागी अपमान ॥ ४९ ॥ सबल कुमार्गी धर्ममें, जो न करे अति भाव ॥ तो सुंदर अथ जो करें, तो सुध धर्मि दुख दाव ॥५०॥ मिथ्या वादे होय जो, श्रावक जन सब एक ॥ धर्मी जनकूं वर तदा, किम ये दुख अविवेक ॥ ५१ ॥ सुगुण महर्घ महा गिरि, जयसों पुरुष रतन जसु आश्रय आचार रत, करें सुधर्म जतन ॥ ५२ ॥ ते सुपुरुषके मूलकू, सुरतरु मणी न पाय || विधिरत जनकू जो दिए, धर्म सहाय सदाय ॥
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५३ ॥
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