Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala

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Page 269
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatith.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir SIS केइ मूढ अन्याय करि, आण भंग जिम थाय ॥ तिम जिण द्रव्य वधारता, बुढे भवोदधिर्माय ॥१२॥ 3] कुग्रह ग्रह अहि जवीकू, जो रुजु धर्म सुणाय ॥ चर्मभखी कूकरमुखे, सो कर्पूर चवाय ॥ १३॥ सूत्र भाषि नर धन्य तस, रोषवि उपशम कोश ॥ उत्सूत्रीकी पिण क्षमा, महा मोह घर दोष ॥१॥ जो शिवसुख जिणधर्मथी, एकभि नहि संदेह ॥ पुन्य हीणके जाणवो, कठिण मोक्ष सुख तेह ॥१५॥ चतुराई सवही कला, लहिये जगत सुजाण ॥ पिण दुर्लभ इक जैन मत, विधी रत्न विज्ञान ॥ १६ ॥ बहुलताय मिथ्यात्वकी, दुलभ सुसमकित झ्यान ॥ जिम पापी नृपके उदै, वर नरनाथ कथान ॥७॥ बहु गुण विद्या गेहजो, तदपि उत्सूत्री हेय ॥ जिम वर मणिजुत विघ्नकर, विषधर लोक विषेय ॥१८॥ स्वजन नेह धन लोभ करी, सेवै लोक मिथ्यात ॥ रम्य धर्ममें नवि रमै, है अज्ञान उतपात ॥१९॥ गृह व्यापार परिश्रमे, खिन थया नर तांहि ॥ इकनारी विश्राम है, अन्य जिनागममोहि ॥ २०॥ सम पिण उदर भरे जुओ, मूढ अमूढ विपाक ॥ मूढ लहै नरकादि दुख, निपुण लहै शिव नाक ॥२१॥ जिनमत कथा प्रबंध सब, जण संवेग उपाय ॥ संवेग तु समकित छते समकित शुद्ध गिराय ॥२२॥ तो जिन आण परे धरम, सुणवो सुगुरु सकाश ॥ अथवा ततउपदेशको, कथक सुश्रावक पास ॥२३॥ कथा ज्ञान उपदेशते, जाणे जाते जीव ॥ समकित अरु मिथ्यात्वनो, भाव त्रिलोक थितीव ॥ २४ ॥ जिन गुण मणि निधि पायकर, किम न थाय मिथ्यात ॥ निधि पाये पिण कृपणके, बलि दरिद्र विख्यात For Private and Personal Use Only

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