Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala

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Page 268
________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पष्ठिशतक ॥ अथ षष्ठिशतकगाथानां भाषानुवादः॥ | प्रकरण-11 ॥ १२१॥ दोहा-शासननायक जगतिलो, प्रणमी वीर जिणंद ॥ षष्टीशतक प्रकीर्णनो, अर्थ लिखु मतिमंद ॥१॥भाषानुवादः धन्य कृतारथके हिये, श्रीअरिहंतसुदेव ॥ सुगुरुवसे जिनधर्मपुनि, पांच नमण नितमेव ॥ १॥ जो न करे तप दान तूं, न पटै न गुणे तंत ।। तद आणंद जपो सदा, देव एक अरिहंत ॥२॥ भव दुख हरन जिनेंद्र मत, धर्म एक रे जीव ॥ परसुर नमतो तूं मुस्यो, सुभ कारजमें क्लीव ॥३॥ सुण्यो न देव रु दानवे, मरणथी राख्यो कोय ॥ बहुत वि अजर अमर थया, निश्चल समकित जोय ॥४ जिम वेस्या रत कोइ नर, मने ठगातो शर्म ॥ तिम मिथ्या वेस्या ठग्यो, लखे न गत निधि धर्म ॥२॥ लोक प्रवाह स्वकुल क्रमे, धर्म होय जो बाल ॥ तो धर्मी मिथ्यात्व कुल, थकि अधर्मकी चाल ॥६॥ कुलाचार करि जो नही, राजनीतिमें न्याय ॥ जैनराजमें तो किसु, कुलाचार करि भाय ॥७॥ कर्मे जिन मत निपुनके, जो भव विरति न होय ॥ तौ मिथ्यात्व हत मूढके, पास विरति किम जोय ॥४ देख अविरती जीवकू, ताप विरती मन होय ॥ हा हा किम भव कूपमें, बूडत नाचै जोय ॥९॥ आरंभज पापे करी, जीव महा दुख पाय ॥ वलि मिथ्यात्व लवे करी, लहै न समकित भाय ॥ १० ॥ देशना य उत्सूत्रकी, होय जिणाज्ञा भंग ॥ आज्ञा भंगे पाप तद, दुःकर जिण धरमंग ॥ ११ ॥ जा॥१२१ ।। 12 For Private and Personal Use Only

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