Book Title: Shashti Shatak Prakaranam
Author(s): Manvijay
Publisher: Satyavijay Jain Granthmala
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चैत्य भुवन वलि श्राद्धजन, साधारण द्रव्यादि ॥ तास भेद जसु वचनमें, तेगुरु छे जगदादि ॥१५२॥ पष्टिशतक प्रगटे न विधि विवेक अब, प्रभु वचने पण जाय ॥ ताव निबिड मिथ्यात्वनी, गंठितणो अनुभाव।।१५३॥ भाषानु
बंधन मरण भयादि दुख, नहि तिक्षण दुख जाण ॥ जे अविनय प्रभु बचननो, ते दुख दोष निधान || वादः ।। प्रक० ॥१२७॥
वीरवचन विधि सार लखि, जप निज आतम जोय ॥ तो कहते गृही धर्म जे, गृह्यो धीर पुरुषोय॥१५५॥ ४ यदपि सुश्रावक सेढिए, चढण कढण असमर्थ ।। तदपि मनोरथ मुझहिये, कबहू करूं तदर्थ ।। १५६ ॥ तो सुभ भावे प्रभुनमत, चरणे जाच एक ॥ होय सदा मुझ तुम वचन, रतन लोभ अति रेक ॥ १५७ ॥ मिथ्यावास सुमलिन मन, गत विवेक हममांहि ॥ कहांथि मुख संभाविए, स्वपनविपे पण नाहि ॥१५८॥ 5 धरूं जो जीवित मात्र पण, नाम श्राइनो सार ॥ ते पण अति अचिरज प्रभु, दूसम काल मझार ॥१५९४
इम विचार करि तिम मुगुरु, हमने करो सनाथ ॥ सुलभ होय जिम नरपणुं.शिव सामग्री साथ ॥१०॥ नेमिचंद भंडारिकृत, गाथा केइक एम ॥ विधिमगमग्न भविक भगो, लखो लहो शिव क्षेम ॥ ११ ॥ षष्ठिशतक प्राकृतथकी दोधक किया सुभास । दोधक शोधक बुद्धिजन, सेवक मोहनतास ॥ १६२॥४
॥१२७॥ ॥ भाषानुवादः समाप्तः॥
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