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षड्दर्शन समुच्चय, भाग-१, भूमिका
विना द्रव्य अनुयोग विचार, चरण करणनो नहीं को सार । सम्मति ग्रंथे भाषिउं इस्यूं ते तो बुद्ध जन मनमां वस्यु ।।१-२।।
सारांश में, चरण-करणानुयोग द्वारा आचरणा की शुद्धि द्वारा आत्महित सिद्ध करना हो तो द्रव्यानुयोग का अभ्यास करना भी अति आवश्यक हैं । (जैन दर्शन में सम्मतितर्क द्रव्यानुयोग का महान ग्रंथ माना जाता हैं । उससे अतिरिक्त अनेक श्री जैनाचार्यों के द्वारा विभिन्न द्रव्यानुयोग के ग्रंथ रचे गये हैं, कि जो प्राचीन नव्य-न्याय की शैली से गर्भित है । उसकी सूचि 'जैनदर्शन के ग्रंथकलाप' नाम के परिशिष्ट में देखें ।)
प्रत्येक दर्शनो ने जगत के पदार्थों का स्वरूप समझाने का प्रयत्न किया है । उसके लिए तत्-तत् दर्शन के आचार्योने अनेक ग्रंथ रचे हैं । उस ग्रंथरचना की श्रेणी में क्रमशः नयी नयी शैलीयों का आविर्भाव भी होता आया हैं । वे आविर्भाव पाई हुई शैलीयों में प्राचीन-नव्य न्याय की शैली ने अपनी अनोखी विशिष्ट छाया (Image) प्रस्थापित की है । थोडे में ज्यादा कहने के लिए उपयोग में ली जाती यह शैली वर्तमान में ज्यादा प्रचलित बनती जाती है और इसलिए न्याय का अभ्यास अनिवार्य बनता जाता हैं ।
प्रत्येक दर्शनो ने अपने-अपने दृष्टिकोण से जगत के पदार्थों को समजाये हैं और उसमें भी न्याय की शैली का आविष्कार हुआ हैं । इसलिए वस्तु के सर्वांगीण स्वरूप को समझने के लिए सभी दर्शनो का अभ्यास आवश्यक हैं और इसके लिए न्याय(5) का अभ्यास भी आवश्यक हैं ।
प्रस्तुत ग्रंथ प्राचीन न्यायगर्भित हैं और दर्शनग्रंथो के अभ्यास का प्रवेशक ग्रंथ हैं । प्रत्येक दर्शन की मूलभूत मान्यताओं को इस ग्रंथ में बुन ली गई हैं । तत्-तत् दर्शन की मूलभूत मान्यताओं को जाने बिना उसकी सूक्ष्म मान्यताओं का समझना सरल नहीं बनता हैं । इस वस्तु स्थिति को ध्यान में रखकर ग्रंथकार महर्षिने प्रत्येक दर्शन की देव, प्रमाण और तत्त्वविषयक मान्यताओं का इस ग्रंथ में आलेखन किया है । टीकाकार महर्षि ने आधारभूत तत्-तत् दर्शन के अवतरण टांककर उस उस दर्शन की उस उस मान्यताओं को विस्तार से स्पष्ट की हैं ।
जैनदर्शन की टीका में प्रत्येक तत्त्वो की अद्भुत शैली से परीक्षा की है और वस्तु के यथार्थ स्वरूप तक पहुँचने की दिशा बताई है । मध्यस्थ वर्ग को टीकाकारश्री की युक्तियुक्त दलील अवश्य आवकार्य बनेगी उसमें कोई शंका को स्थान नहीं हैं। दर्शन :
भारत वर्ष के इतिहास में 'दर्शन' शब्द नया नहीं हैं । भिन्न-भिन्न संदर्भ में वह शब्द अनेक स्थान पे व्यवहार में प्रयोजित होता दिखाई देता हैं । प्रस्तुत परिप्रेक्ष्य में यह शब्द किस अर्थ में प्रयोजित हुआ है वह सोच के आगे बढ़ेंगे।
किसी भी शब्द के वाच्यार्थ में कोश प्रमाणभूत माना जाता हैं । वर्तमान में अनेक कोश उपलब्ध होते हैं । कोष अनुसार 'दर्शन' शब्द का व्युत्पत्ति-प्राप्त अर्थ हैं - दृश्यते अनेन इति दर्शनम् - जिसके द्वारा देखा जाता है, वह दर्शन हैं। (यहाँ प्रश्न खडा होगा कि, क्या देखा जाता है ? तो तुरन्त एक तथ्य सामने आता हैं कि,) जिसके द्वारा वस्तु का वास्तविक स्वरूप सामने आये उसे दर्शन कहा जाता हैं ।
5. न्यायश्च प्रमाणैरर्थपरीक्षणरुपः । उक्तञ्च - प्रमाणैरर्थपरीक्षणम् - न्यायः । एतेनेदमेवाऽऽयाति यत् - समस्तप्रमाणव्यापारादर्थाऽधिगतिायः
(न्या.वा.१ पृ. १४)
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