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'षट पत्तनालंकार आदि जिनस्तवन', 'भीमपल्ली वीर जिनस्तवन', 'तारंगलंकार अजित जिनस्तवन', आदि रचनाओं से ज्ञात होता है कि इन्ही तीर्थस्थानवाले प्रदेश में इनका भ्रमण रहा होगा। ___इनका स्वर्गवास किस वर्ष में हुआ, इसका कोई उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया। श्री अगरचन्दजी नाहटा का अनुमान है कि सं. १४२० के आपसास इनका स्वर्गवास हुआ होगा।
श्री तरुणप्रभ सूरि की शिष्य परंपरा आदि के बारे में भी कोई विशेष उल्लेख हमारे देखने में नहीं आया।
श्री जिनोदय सूरि की पट्ट स्थापना इन्हीं के द्वारा हुई थी और इसलिये जिनोदय सूरि के सम्बन्ध मे जो 'विवाहला तथा पट्टाभिषेक रास' नामक तत्कालीन प्राचीन भाषा रचना प्राप्त होती है। उसमें इनके विषय में लिखा है कि “तरुणप्रभ सूरिने श्री जिनचन्द्र सूरि (तृतीय) के पट्ट पर सोमप्रभ नामक विद्वान गणि की स्थापना कर उन्हें जिनोदय सूरि के नाम से उदघोषित किया।
जिनोदय सूरि श्री जिनकुशल सूरि के बाद चौथे पट्टधर आचार्य हुए। यों वे उन्हीं के दीक्षित शिष्य थे। ये बहुत प्रभावशाली आचार्य थे। इनका रचा हुआ “विज्ञप्तिमहालेख" हमें मिला है। जिसको हमने, सिंधी जैन ग्रंथमाला के ग्रंथांक ५१ के रूप में, अन्यान्य अनेक विज्ञप्ति लेखों के साथ, प्रकाशित किया है। यह 'विज्ञप्ति महालेख' इस प्रकार के विज्ञप्ति लेखों में एक विशिष्ट एवं उत्कृष्ट रचना है। यह लेख विक्रम संवत १४३१ में रचा गया है। उस समय जिनोदय सूरि गुजरात के प्रसिद्ध पाटण शहर में चातुर्मास रहे हुए थे। वहाँ पर अयोध्या नगर में रहनेवाले लोकहिताचार्य द्वारा भेजा हुआ एक विशिष्ट प्रकार का विज्ञप्ति लेख श्री जिनोदय सूरि को मिला तो उसके प्रत्युत्तर रूप में जिनोदय सूरि ने भी वैसाही एक विशिष्ट लेख तैयार कर श्री लोकहिताचार्य को अयोध्या भेजा। यही उक्त 'विज्ञप्ति महालेख' है।
जिनोदय सूरि ने उस समय से पहले तीन चार वर्षों में जो तीर्थ यात्राएँ तथा प्रतिष्ठा महोत्सव आदि जहाँ जहाँ किये उनका विशिष्ट प्रकार की अलंकारिक भाषामें वर्णन किया है। लेख बहुत ही प्रौढ़ शब्दावली से अलंकृत संस्कृत भाषामें लिखा गया है। इस विज्ञप्ति महालेख में उन्होंने उल्लेख किया है कि ; “सौराष्ट्र देश की यात्रा करते हुए हम सुप्रसिद्ध नवलखी बन्दरनामक स्थान पर भी गये और वहाँ के जैन मंदिर में स्थित श्री जिनरत्न सूरि, श्री जिनकुशल सूरि तथा श्री तरूणप्रभ सूरि के पाद-पद्मों को वंदन नमन किया।” इससे ज्ञात होता है कि संवत् १४३१ के पूर्व ही श्री तरुणप्रभ सूरि का स्वर्गवास हो गया था।
उस समय श्री तरूणप्रभ सूरि के स्थान पर गच्छ एवं संघकी व्यवस्था का कार्यभार श्री विनयप्रभ उपाध्याय संभाल रहे थे, ऐसा जिनोदय सूरिके विज्ञप्ति महालेख से ज्ञात होता है। उन्होंने लिखा है कि-"हम यात्रा करते हुए जब घोघा नामक बन्दर में पहुचे तो वहाँ पर नवखंड पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन किये और वहीं पर गच्छका समग्र कार्यभार वहन करने वाले हमारे सहायक एवं विद्या के समुद्र समान श्री विनयप्रभ महोपाध्याय का अत्यन्त आह्लादजनक संगम हुआ।" इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि श्री जिनकुशल सूरि के स्वर्गवास के अनन्तर गच्छ समुदाय का जो कार्यभार श्री तरुणप्रभसूरि वहन करते थे। उनके अभाव में वही कार्यभार उस समय श्री विनयप्रभ महोपाध्याय वहन कर रहे थे।
ये विनयप्रभ श्री जिनकुशल सूरि के ही दीक्षित शिष्य थे। जिनोदय सूरि के साथ ही इन्होंने संवत् १३८२ में दीक्षा ली थी। जिनोदय सूरि का दीक्षा नाम सोम-प्रभ था। जिनको तरुणप्रभाचार्य ने संवत् १४१५ में आचार्यपद प्रदान कर गच्छनायक के रूप में प्रतिष्ठित किया था।
ये विनयप्रभ उपाध्याय भी तरुणप्रभाचार्य के समान ही अच्छे विद्वान् थे। इनकी 'श्री गोतम स्वामीरास' नामक एक प्राचीन भाषा-रचना सुप्रसिद्ध है। जो प्रायः, दीपावली के दूसरे दिन अनेक यति-मुनि तथा श्रावक आदि के द्वारा एक मांगलिक स्तुति पाठ के रूप में पढ़ी-सुनी जाती है। यह भी एक संयोग की बात है कि जिस दीपावली के दिन तरुणप्रभाचार्य ने अपने प्रस्तुत बालावबोध ग्रन्थकी
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