Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company
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हे जीव! तें खेती व्यापारादि अनेक प्रकारना आरंभ करी, कूड कपट प्रपंचादि अनेक प्रकारना अनर्थों करी, नीचसेवादि अनेक प्रकारनां अकार्यो करी, अने परदेशभ्रमणादि अनेक प्रकारना जोखम खेडी महा परिश्रमे धन उपार्जन कर्युः परन्तु ते धनने स्वजन-सगा संबन्धीओ विलसे छे-भोगवे छे, एटले ते धननुं फळ तो तेओ भोगवे छे!; पण ते द्रव्य उपार्जन करतां अनेक प्रकारनां पापकर्मों तो तारे ज भोगवां पडे छे, तेओ कोइ भोगववा आवता नथी. माटे हे आत्मन् ! कांइक समज. बीजाओने माटे पापना पोटला बांधी दुःखी न था, अने न्यायथी धन उपार्जन करी यथाशक्ति धर्मकार्योमां तेनो व्यय कर, के जेथी तारो परिश्रम फलीभूत थाय. ॥ २८ ॥ अह दुक्खियाई तह भुक्खियाई जह चिंतियाई डिंभाई। तह थोपि न अप्पा, विचिंतिओ जीव! किंभणिमो?॥
हे जीव ! तें मूढ बनी 'अरे! आ मारा बाळक दु
* अथ दुःखितास्तथा बुभुक्षिता यथा चिन्तिता डिम्भाः ।
तथा स्तोकमपि नात्मा, विचिन्तितो जीव ! किं भणामः ? ॥२९॥
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