Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company

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Page 62
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ५९ ) पवणु व गयणमग्गे, अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो ठाणट्ठाणम्मि समु-ज्झिऊण धण-सयणसंघाए ॥८७॥ जेम पवन आकाशमां अदृश्य रूपे भिन्न भिन्न स्थाने भम्या करेछे, तेम आ जीव ठेकठेकाणे धन अने सगां वालाओनो त्याग करी अजाणपणाथी भटक्या करे छे. माटे हे आत्मन् ! 'आमारुं धन, आ मारा सगा - वहाला ' आ रीते खोटो ममत्वभाव त्यागी, तारा शुद्ध स्थिरस्वभावने प्राप्त करवा वीतरागप्रभुनो धर्म आचर ॥८७॥ विर्द्विजन्ता असयं, जम्म- जरा मरणतिक्खकुंतेहिं । दुहमणुभवन्ति घोरं, संसारे संसरन्त जिआ ॥८८॥ तहवि खर्णपि कयावि हु, अन्नाणभुयंगडंकिया जीवा । संसारचारगाओ, न य उद्दिज्जन्ति मूढमणा ॥ ८९ ॥ आ असार संसारमां भटकता जीवो जन्म जरा अने मरण रूपी तीक्ष्ण भालाओ वडे वारंवार विधाइ घोर * पवन इव गगनमार्गे, अलक्षितो भ्रमति भववने जीवः । स्थानस्थाने समुज्झ्य धन खजनसंघातान् ॥ ८७ ॥ + विध्यमाना असकृद्, जन्म-जरा-मरणतीक्ष्णकुन्तैः । दुःखमनुभवन्ति घोरं, संसारे संसरन्तो जीवाः ॥ ८८ ॥ तथापि क्षणमपि कदापि खलु, अज्ञानभुजङ्गदष्टा जीवाः । संसारचारकाद्, न चोद्विजन्ते मूढमनसः ॥ ८९ ॥ For Private And Personal Use Only

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