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शास्त्रविशारद - जैनाचार्य - श्रीमद् विजयधर्मसूरिभ्यो नमः
साथै भववैराग्यशतकम् ॥
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प्रकाशक
ए. एम्. एन्ड कम्पनी, मुंबई. निर्णयसागर छापखानामां छापीने प्रसिद्ध कयुं.
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सन १९९८.
मूल्य रू००-६-०
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शास्त्रविशारद-जैनाचार्य-श्रीमद्-विजयधर्म
सरिभ्यो नमः । सार्थ भववैराग्यशतकम्॥
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प्रकाशक
ए. एम्. एन्ड कम्पनी, मुंबई. निर्णयसागर छापखानामां छापीने प्रसिद्ध कयु.
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सन १९१८.
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मूल्य रू. ०-६-०
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rinted by Ramchandra Yesu Shedge, at the 'Nirnaya-dagar' Press,
23 Kolbhat Lane, Bombay.
Published by Maganlal Velchand, Javeri Bazar,
No, 426, BOMBAY,
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नमोऽर्हन्यः ॥ ॥अथ सार्थ भववैराग्यशतकम् ॥
संसारम्मि असारे, नत्थि सुहं वाहि-वेअणापउरे । जाणंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसि धम्मं॥१॥ __ अनेक प्रकारनी व्याधिओ अने वेदनाओथी भरपूर एवा आ असार संसारमा आ जीवने कोइ पण गतिमा क्षण मात्र पण सुख नथी. आवी रीते आत्मा संसारने असार जाणे छे छतां पण बहुलकर्मी होवाथी वीतराग भगवंते उपदेशेलो दयामूल धर्म करतो नथी, अने संसारनो लोलुपी-लालचु थइ धर्मरत्न गुमावे छे. ॥१॥ अजं कल्लं परं परारिं, पुरिसा चिंतन्ति अत्थसंपत्तिं । अंजलिगयं व तोयं, गलतमा न पिच्छन्ति ॥२॥
* संसारेऽसारे नास्ति सुखं व्याधि-वेदनाप्रचुरे । जाननिह जीवो न करोति जिनदेशितं धर्मम् ॥ १॥ + अद्य कल्ये परस्मिन् परतरस्मिन् पुरुषाश्चिन्तयन्त्यर्थसम्पत्तिम् । अञलिगत मिव तोयं गलदायुर्न पश्यन्ति ॥ २॥
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( २ )
पुरुषो चिंतवे छे के - " आजे धननी प्राप्ति थशे, काले धन मळशे, पोर मळशे, परार मळशे, पैसा एकठा करी सुखी थइशुं, पैसो मेळवी धर्म करीशुं”, आवी रीते विचारमांने विचारमां समय गुमावे छे, परन्तु ते पुरुषो हथेळीमां रहे पाणी गळी जायछे तेम आयुष्य गळी जाय छे ते देखता नथी. ॥ २ ॥
जं कल्ले काय, तं अजं चिय करेह तुरमाणा । बहुविग्घो हु मुहुत्तो, मा अवरहं पडिक्खेह ॥ ३ ॥
मनुष्यो चिंतवे छे के - काले धर्मकार्य करीशुं, परंतु काल कोणे दीठी छे ?; काले शुं थशे तेनी कोने खबर छे ?. माटे हे भव्यो ! जे धर्मकार्य काले करवानुं होय तेने विलंबरहित आजे ज करजो-जरा पण ढील करशो नहीं. कालचक्र कायाने चरे छे, धर्मकार्य करवामां खरेखर एक मुहूर्त पण घणा विघ्नो वाळो होय छे. माटे पाछला पहोरे पण करवानुं होय तेने प्रथम पहोरमां ज करी ल्यो, कारण के क्षणमांहे आयुष्य पूरुं थशे तो ते वखते शुं करशो ! ॥ ३॥
-
* यत् कल्ये कर्तव्यं तदचैव कुरुध्वं त्वरमाणाः । बहुविघ्न एव मुहूतों मात्रपराह्णे प्रतीक्षध्वम् ॥ ३॥
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( ३ )
ही ! संसारसहाव - चरियं नेहाणुरायरत्ता वि । जे पुण्छे दिट्ठा, ते अवरण्हे न दीसन्ति ॥ ४॥
संसारना स्वभावनुं अतिकारमुं चरित्र देखी खरेखर खेद थायछे - दिलगीरी उपजेछे, कारण के - स्नेहना अनुरागे आसक्त अने प्रीतिथी परिपूर्ण एवा माता पिता बांधव स्त्री विगेरे संबंधीओ के जेओने पहेले पहोरे सुखशान्तिमां देख्या हता तेओ पाछले पहोरे देखाता नथी !, संसारनो आवो भयङ्कर स्वभाव देखीने पण मुग्ध जीवो मां ज आसक्ति राखेछे ते शोचनीय छे. ॥ ४ ॥
मा सुयह जग्गियचे, पलाइयवम्मि कीस विसमेह ? | तिन्निजणा अणुलग्गा, रोगो अजरा अ मच्चू अ ॥५॥
हे जीवो ! जागवाने ठेकाणे सूइ न रहो-धर्म कृत्यमां प्रमाद न करो, कारणके काळरूपी पारधि तमारी पछवाडे पड्यो छे जे अणचिन्तव्यो तमारो विनाश करी दुर्लभ मनुष्यभव निष्फल करी नाखशे. वळी, ज्यांथी पलायन करी जवुं जोइए त्यां विसामो खावा केम बेठा छो ?,
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* ही संसारस्वभावचरितं स्नेहानुरागरक्ता अपि । ये पूर्वाह्णे दृष्टास्तेऽप - राहे न दृश्यन्ते ॥ ४ ॥ + मा स्वपित जागरितव्ये पलायितव्ये कस्माद् विश्राम्यथ ? । त्रयो जना अनुलमा रोगश्च जरा च मृत्युश्च ॥ ५ ॥
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कारण के रोग जरा अने मृत्यु एत्रण चोरो तमारी पछवाडे पज्या छे. माटे धर्मकृत्यमां जरा पण प्रमाद न करो, अने संसारमाथी जल्दी पलायन करी जाओ के जेथी जन्म जरा मृत्यु रोग अने शोकादिनो भय सदाने माटे विनाश पामे ॥५॥ दिवस-निसाघडिमालं, आउसलिलं जिआण घेत्तूणं । चंदाइचबइल्ला, कालमरहट्टं भमाडन्ति ॥ ६॥ __ आ संसार रूपी कूवो छे, सूर्य अने चन्द्र रूपी रातो अने धोळो एवा बे बळवान् बळद छे. ते सूर्य अने चन्द्र रूपी बळदो, दिवस अने रात्रि रूपी घडाओनी पंक्ति वडे जीवोना आयुष्यरूपी पाणीने ग्रहण करी काळरूपी रेटेंने फरवेछे-आयुष्यरूपी पाणी रात्रि दिवस खूटे छे, तेम नजरे जोवा छतां हे भव्य प्राणीओ! तमने संसारथी उदासभाव केम थतो नथी? ॥ ६॥ सा नस्थि कला तं नत्थि,ओसहं तं नत्थि किंपि विन्नाणं। जेण धरिजइ काया, खजन्ती कालसप्पेण ॥७॥
___* दिवस-निशाघटीमालया आयुःसलिलं जीवानां गृहीखा । चन्द्राऽऽ. दित्यबलीवौ कालाऽरह भ्रमयतः ॥ ६॥ + सा नास्ति कला तन्नास्त्यौषधं तन्नास्ति किमपि विज्ञानम् । येन धार्यते कायः खाद्यमानः कालसर्पण ॥ ७
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हे भव्यजीवो! काळरूपी सर्पे खावा मांडेली देहन जेणे करी रक्षण करीए एवी कोइ बहोतेर कळामांनी कळा देखाती नथी, एवं कोइ ओसड दृष्टिगोचर थतुं नथी, तेम एवं कोइ विज्ञान हस्ती धरावतुं नथी-बीजां सर्वजातिनां विष उतरे पण डसेला काळरूपी सर्पर्नु विष उतरे नहीं. महा समर्थ पुरुषोनां वज्रजेवां शरीरने पण काळरूप सर्प गळी गयो छे, तो पछी आपणा जेवानी काची कायानो शो भरोसो, माटे विलम्ब रहित धर्मकृत्य करी ल्यो ॥७॥ दीहरफणिंदनाले, महियरकेसर दिसामहदलिल्ले। ओ! पीयइ कालभमरो, जणमयरंदं पुहविपउमे ॥८॥
घणी खेदनी वात छे के-जेनुं शेषनागरूप मोटुं नाळq छे, जेना पर्वतो रूपी केसरा छे, जेना दस दिशारूप विशाळ पर्णो छे एवा आ पृथ्वीरूप कमळमां, काळरूप भ्रमर, मनुष्यरूप-समग्रलोकरूप रसने पीवेछे !. भमरो कमळमांथी एवी रीते रस ले छे के जेथी कमळने जरा पण इजा थाय नहीं, वळी ते मधुरस्वरे बो
* दीर्घफणीन्द्रनाले महीधरकेसरे दिशामहादले । ओ! (पश्चात्तापः) पिबति कालभ्रमरो जनमकरन्दं पृथ्वीप ॥ ८ ॥
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( ६ )
लीने पोताना खप जेटलो ज थोडी थोडो रस ले छे; परन्तु अहीं काळरूप असंतोषी भमरो तो पृथ्वीरूप कमळमाथी समग्रलोकरूप रसने अनेक प्रकारनी व्याधिओ अने वेदनाओ रूप क्रूरपणुं वापरी चूसी ले छे, एटले के-ते क्रूर काळ कोइ पण प्राणीनुं भक्षण कर्या विना रहेतो नथी.
लोकोमा एवं कहेवाय छे के - आ समग्र पृथ्वीने शेषनागे पोताना मस्तक उपर उपाडी राखी छे. आवी लोकोतिथी अहीं पृथ्वीरूप कमळनुं शेषनागरूप नाळवं कयुं. वळी जेम कमळमां केसरा होय छे तेम अहीं पृथ्वीरूप कमळने पर्वतो रूप केसरा कह्या, अने दस दिशाओ मोटा मोटां पांदडांओने ठेकाणे समजवी. आवा पृथ्वीरूप मोटा कमळमांथी लोकरूप रसने निरन्तर पीतां पण काळरूप भमरो हजु सुधी तृप्त थयो नहीं, तृप्त थतो नथी, अने तृप्त थशे पण नहीं !. माटे हे भव्यप्राणीओ ! काळरूप असन्तोषी भमराना आस्वादनमां न अवाय एवा आत्मस्वरूप पामवाना साधनमाटे प्रमाद त्यागी उद्यम करो ॥ ८ ॥
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छायामिसेण कालो, सयलजिआणं छलं गवसंतो। पासं कह वि न मुंचइ, ता धम्मे उजमं कुणह ॥९॥
जे शरीरनी छाया देखाय छे, अने निरन्तर शरीरनी साथे ज फरे छे, ते छाया नथी पण ए तो छायाने बहाने काळ फरे छे. शत्रु जेम निरन्तर छळ-भेदने ताकतो फरे छे, अने झपाटामां आवतां पोतानुं कुकृत्य पूरू करे छे, तेम छायाने बहाने रात्रि-दिवस छळभेदने ताकतो क्रूर काळ प्राणीनी क्यारेय पण केड मूकतो नथी. 'प्राणी क्यारे स्खलना पामे के एने हुं पकडी लउं' आवी दुष्ट वांछाये ते रात्रि-दिवस छायाने बहाने पाछळ पडेलो छे, ते ओचिंतो जरूर पकडी लेशे. अने ते वखते तमने पश्चात्ताप थशे के-'अरेरे! आपणे काइ धर्मसाधन करी शक्या नहीं ! माटे काळना सपाटामां आव्या नथी त्यां सुधीमां जिनप्ररूपित धर्मने विषे प्रयत्न करी ल्यो ॥९॥
* छायामिषेण कालः सकलजीवानां छलं गवेषयन् । पार्श्व कथमपि न मुञ्चति तस्माद् धर्मे उद्यमं कुरुध्वम् ॥ ९॥
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(c)
कालम्मि अणाइए, जीवाणं विविहकम्मवसगाणं । तं नत्थ संविहाणं, संसारे जं न संभवइ ॥ १० ॥
अनादिकालने विषे क्रोध मान माया अने लोभने योगे विविध प्रकारना कर्मने वश थयेला जीवोने आ संसारमा एवो कोई संबन्ध नथी के जे न संभवे, अर्थात् समग्र संबन्धे आ जीवो संसारमां भटक्या छे, पण जो जिनवरनो धर्म स्वीकारी रूडी रीते पाळे तो संसाररूप चक्रमां न भमे ॥ १० ॥
बंध सुहिणो सधे, पिअ माया पुत्त भारिया । पेअवणाओ निअन्तन्ति, दाऊणं सलिलंजलिं ॥ ११ ॥
हे जीव ! बांधव मित्रो मा बाप स्त्री अने पुत्र ए कोइ तारांसगां नथी, पण देहनां सगां छे. कारण केमृत्यु थया पछी देहने बाळी पाणीनी अंजली आपी श्मशानथी पोतपोताना स्वार्थने संभारता पोतपोताने घेर पाछा जाय छे, पण तेमानुं कोइ वहालुं सगुं तारी
* कालेऽनादिके जीवानां विविधकर्मवशगानाम् । तन्नास्ति संविधानं संसारे यन्न संभवति ॥ १० ॥ + बान्धवाः सुहृदः सर्वे माता- पितरौ पुत्र भार्याः । प्रेतवनाद निवर्तन्ते दत्त्वा सलिलाऽञ्जलिम् ॥ ११ ॥
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(९) साथे आवतुं नथी. माटे तेओनी खोटी मूर्छा त्यागी तारी संगाथे आवनारा धर्मने आदर के जेथी तारो जल्दी निस्तार थाय ॥ ११ ॥ विहंडन्ति सुआ विहडन्ति, बंधवा विहडन्ति सुसंचिआ अत्था । इको कह वि न विडहइ, धम्मो रे जीव ! जिणभणिओ ॥ १२॥ हे जीव ! दीकराओनो वियोग थाय छे, बान्धवो विखूटा पडे छे, अने घणा परिश्रमथी मेळवेली सम्पत्ति पण वियुक्त थाय छे. एटले के तेमने मूकीने तारे जर्बु पडशे, अथवा तने मूकीने तेओ चाल्या जशे, पण एक जिनराजे कहेला धर्मनो कोइ काळे पण वियोग थवानो नथी, अर्थात् आ जीवने साचं सगपण तो धर्मर्नु ज छे, बीजं सर्व आळ पंपाळ छे. माटे जिनधर्म उपर साची श्रद्धा राखी तेनुं ज सेवन कर. ॥ १२॥ अडकम्मपासबद्धो, जीवो संसारचारए ठाइ ।
* विघटन्ते सुता विघटन्ते बान्धवा विघटन्ते सुसञ्चिता अर्थाः ।
एकः कथमपि न विघटते धर्मो रे जीव ! जिनभणितः ॥ १२ ॥ + अष्टकर्मपाशबद्धो जीवः संसारचारके तिष्ठति ।
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( १० )
अॅडकम्मपासमुक्को, आया सिवमंदिरे ठाइ ॥ १३ ॥
आ जीव आठ कर्मरूप पाशथी बंधायेलो एवो संसाररूप बन्दीखानामां ठाम ठाम भटके छे, अने आठ कर्मरूप पाशथी मूकायेलो एवो मोक्षमन्दिरमां जइने रहे छे । माटे हे जीव ! तुं आठ कर्मरूप पाशने तोडीश त्यारे ज मोक्षमन्दिरमां जइश, अने अविनाशी सुख पामीश. विवो सज्जणसंगो, विसयसुहाई विलासललिआई । नलिनीदलग्गघोलिर - जललवपरिचंचलं सर्व्वं ॥ १४ ॥
आ जीवे मानी लीला जे सुखकारी पदार्थों, जेवा केलक्ष्मी, सग संबन्धीओनो संग, तथा स्त्री विगेरेना मनोहर विलासे करी सुंदर एवा पांचे इन्द्रियोनां विषयसुख, ए सर्व अतिशय चंचल छे. जेम कमळपत्रना अग्र भागमा रहेलुं जलबिन्दु अतिचपल छे तेम ए सर्व अतिशय चपल छे-धोडा कालमां ज हतुं नहोतुं थइ जायछे ! माटे हे जीव ! आवा अस्थिर पदार्थोमां शा माटे आसक्त थायछे ? ॥ १४ ॥
* अष्टकर्मपाशमुक्त आत्मा शिवमन्दिरे तिष्ठति ॥ १३ ॥ + विभवः सज्जनसङ्गो विषयसुखानि विलासललितानि । नलिनीदला घूर्णयितृ - जललव परिचञ्चलं सर्वम् ॥ १४ ॥
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(११) तं कत्थ बलं तं कत्थ, जुवणं अंगचंगिमा कत्थ । सबमणिचं पिछह, दि8 नर्से कयंतेण ॥ १५॥ कायानुं ते बळ क्यां गयुं ?, ते जुवानी क्या चाली गइ ?, शरीरनुं ते सौन्दर्य क्यां गयुं ?, ते सर्व रूप-रंग क्यां चाल्या गया?, अरे वृद्धावस्था आवी!.हे प्राणीओ! आ सर्व अनित्य छे ते साक्षात् जुओ-तपासो. जे सर्व नानी वयमा देख्युं हतुं, ते सर्व यमराजाए नष्ट भ्रष्ट करी दीg-थोडा ज बखतमा हतुं नहोतुं थइ गयु. आ शरीरने गमे तेटली साचवणीथी राखशो तो पण तेनुं बळ सौन्दर्य अने जुवानी टकवानी नथी-विनश्वर छे, मा जेनी करेली सेवा कदापि निष्फल थती नथी एवा धर्मर्नु सेवन करो ॥१५॥ घणकम्मपासबद्धो, भवनयरचउप्पहेसु विविहाओ। पावइ विडंबणाओ, जीवो को इत्थ सरणं से १ ॥१६॥
* तत् कुत्र बलं ? तत् कुत्र यौवनम् ? अङ्गचगिमा कुत्र ? । सर्वमनित्यं पदयत दृष्टं नष्टं कृतान्तेन ॥ १५॥ + घनकर्मपाशबद्धो भवनगरचतुष्पथेषु विविधाः । प्राप्नोति विडम्बना जीवः कोऽत्र शरणं तस्य ? ॥ १६ ॥
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(१२) आ जीव निबिड कर्मरूप पाशथी बंधायेलो एवो संसाररूप नगरना चारगतिरूप चौटामां अनेक प्रकारनी विडम्बनाने पामे छे, अहीं तेनुं कोण शरणछे ॥१६॥ घोरम्मि गन्भवासे, कल-मल-जंबालअसुइबीभच्छे । वसिओ अणंतखुत्तो, जीवो कम्माणुभावेण ॥ १७ ॥ ___ आ जीव कर्मना प्रभावथी वीर्य अने मळरूप कादवने लीधे अपवित्रताथी भरपूर अने कंपारी छूटे एवा गंदा भयानक गर्भवासमां अनन्ती वखत वस्यो!. आवा दुःसह दुःखने पण भूली जइ फरीथी गर्भवासमां आवी दुःख भोगववां पडे एवां कृत्यो करे छे!, परन्तु पुनः गर्भवासमा आवदुं न पडे एवो उद्यम करतो नथी!। चुलसीई किर लोए, जोणीणं पमुहसयसहस्साई । इकिकम्मि अ जीवो, अणंतखुत्तो समुप्पन्नो ॥१८॥ __ लोकने विषे जीवने उत्पन्न थवानां स्थानक चोराशी लाख योनि छे. ते एक एक योनिमां आ जीवे अनन्ती वार अवतार लीधो!, तो पण हे प्राणी ! ते उत्पत्ति
__ * घोरे गर्भवासे कल-मलजम्बालाऽशुचिबीभत्से । उषितोऽनन्तकृलो जीवः कर्मानुभावेन ॥ १७ ॥ + चतुरशीतिः किल लोके योनीनां प्रमुखशतसहस्राणि । एकैकस्यां च जीवोऽनन्तकृतः समुत्पन्नः ॥ १८ ॥
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( १३ )
स्थानमांथी कंटाळो पामी तुं धर्मकृत्य करवामां केम
उद्यम करतो नथी ? ॥ १८ ॥
माया- पिय-बंधूहिं, संसारत्थेहिं पूरिओ लोओ । बहुजोणिनिवासीहिं, न य ते ताणं च सरणं च ॥ १९॥
हे जीव ! संसारमा रहेला अने चोराशी लाख योनिमां निवास करता एवा मात पिता अने बन्धुओ वडे आ चौदराजलोक भर्यो छे, पण ते कोइ तारुं रक्षण करवाने समर्थ नथी, तेम शरण राखवाने पण समर्थ नथी !. माटे रक्षण करवाने समर्थ एवा जिनधर्मनुं शरण ले के जेथी आधि व्याधि अने उपाधिरूप दुःखथी परिपूर्ण एवा आ संसारथी मुक्त थइ शके ॥ १९ ॥ जीवो वाहिविलुत्तो, सफरो इव निजले तडफडई | सयलो वि जणो पिच्छ, को सक्को वेअणाविगमे १ २०
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ज्यारे आ जीव व्याधिथी ग्रस्त थइ जल विनाना मालानी जेम तडफडे छे-टळवळे छे, हाय ! ओय ! करे छे, ते वखते पासे बेठेला सगां संबन्धीओ असह्य
* माता- पितृ-बन्धुभिः संसारस्यैः पूरितो लोकः । बहुयोनिनिवासिभिः न च ते त्राणं च शरणं च ॥ १९ ॥ + जीवो व्याधिविलुप्तः शफर इव निर्जले तडफडयति । सकलोऽपि जनः पश्यति कः शक्तो वेदनाविगमे ? ॥ २० ॥
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(१४) दुःख देखे छे छता तेमांनुं कोण वेदना दूर करवाने समर्थ थाय छे ?, अर्थात् कोइ कांइ पण वेदना निवारवाने शक्तिमान् थतुं नथी, पण छेवटे अंत समये धर्मनुं शरण बतावे छे. माटे हे प्राणी ! परिणामे धर्मनु शरण तो करवू ज पडे छे, तो पछी प्रथमथी ज धर्मनुं शरण लेवाने शा माटे विलंब करे छे ?. ॥ २० ॥ माँ जाणसि जीव ! तुमं, पुत्त-कलत्ताइ मज्झ सुहहेऊ। निउणं बंधणमेयं, संसारे संसरंताणं ॥ २१॥
हे जीव ! तुं आ संसारने विषे एकान्ते दुःखना हेतु जे पुत्र स्त्री मित्रो विगेरेने सुखना हेतु जाण नहीं, कारण केसंसारमा भ्रमण करता जीवोने ए पुत्र स्त्री मित्रो विगेरे सगां संबंधीओ आकरा संसारबन्धन- कारण थाय छे, पण संसारमांथी छोडावता नथी. माटे ते संसारबन्धन करावनारा सगां संबंधीओमां ममत्व भाव नहीं राखतां कर्मबन्धनथी मुक्त करनार धर्ममां दृढबुद्धि कर ॥२१॥ जणणी जायइ जाया, जाया माया पिआ य पुत्तो अ ।
* मा जानीहि जीव! त्वं पुत्र-कलत्रादि मम सुखहेतुः । निपुणं बन्धनमेतत् संसारे संसरताम् ॥ २१ ॥ + जननी जायते जाया, जाया माता पिता च पुत्रश्च ।
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(१५)
अणवत्था संसारे, कम्मवसा सङ्घजीवाणं ॥ २२ ॥
आ संसारमा कर्मवशथी जीवोनी अव्यवस्था छे, एटले एक प्रकारनी स्थिति रहेती नथी. कारण के-जे आ भवमां माता होय छे ते भवान्तरमां स्त्री पण थाय छे, वळी जे स्त्री होय छे ते भवान्तरमां मातारूपे थाय छे. पिता होय ते भवान्तरमां पुत्ररूपे उत्पन्न थाय छे, अने पुत्र होय छे ते भवान्तरमां पितारूपे थाय छे, आ प्रमाणे संसारनुं अनियमितपणुं छे. सर्व जीवो कर्मने वश थइ भिन्न भिन्न रूपे अवतार ले छे, अने मोहान्ध थइ मारुं मारुं करे छे; पण समजता नथी के एकज जातनी स्थिति रहेवानी नथी. माटे हे जीव ! तारी चल स्थितिनो विचार कर, अने संसारनी जूठी माया अने ममत्व त्यागी धर्मध्यान चूक नहीं ॥ २२ ॥
न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुआ जत्थ, सवे जीवा अणंतसो ॥ २३ ॥
* अनवस्था संसारे कर्मवशात् सर्वजीवानाम् ॥ २२ ॥
+ न सा जातिर्न सा योनिनं तत्स्थानं न तत् कुलम् | न जाता न मृता यत्र सर्वे जीवा अनन्तशः ॥ २३ ॥
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(.१६) चौदराजलोकमां एवी कोइ जाति नथी, एवी कोइ योनि नथी, एवं कोई स्थान नथी, अने एवं कोइ कुल नथी के ज्यां सर्व जीवो अनन्तीवार जन्म्या नथी; अने अनन्तीवार मृत्यु पाम्या नथी-सर्व जीवो सर्व स्थानके अनंतीवार जन्म्या छे अने मृत्यु पाम्या छे. ॥ २३ ॥ तं किं पि नत्थि ठाणं, लोए वालग्गकोडिमित्तं पि । जत्थ न जीवा बहुसो, सुह-दुक्खपरंपरं पत्ता ॥ २४॥ __ लोकने विषे वालना अग्रभागना असंख्यातमा भाग जेटलुं पण एवं कोइ स्थान नथी के ज्यां जीवो घणी वार सुख दुःखनी परम्पराने न पाम्या होय. अर्थात् जीवो सर्व स्थानमा सुख दुःखनी परम्परा पाम्या, पण कर्मक्षयनी परम्परा पाम्या नहीं! ॥ २४ ॥ सवाओ रिद्धीओ, पत्ता सवे वि सयणसंबंधा। संसारे ता विरमसु तत्तो जइ मुणसि अप्पाणं ॥२५॥
हे जीव ! संसारने विषे अनादिकालथी भ्रमण क
* तत् किमपि नास्ति स्थानं लोके वालाग्रकोटिमात्रमपि । यत्र न जीवा बहुशः सुख-दुःखपरम्परां प्राप्ताः ॥ २४ ॥ + सर्वा ऋद्धयः प्राप्ताः सर्वेऽपि खजनसम्बन्धाः । संसारे तस्माद् विरम ततो यदि जानास्यात्मानम् ॥२५॥
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( १७ )
तां तें देव अने मनुष्यादिनी सर्व समृद्धि - संपदा पामी, अने सर्वनी साथे मा बाप बहेन बन्धु स्त्री विगेरे समग्र प्रकारना सगपण अनन्तीवार पाम्यो, पण तेमां तारी हजु सुधी सिद्धि थइ नहीं. माटे परिणामे दुःखकर ते समृद्धि अने सगपणोमां मोह माया राख नहीं. अने आत्मस्वरूपने जाणवा इच्छतो होय तो संसारथी विराम पाम - संसारथी विरक्त था, के जेथी भवभ्रमणा टळी अक्षयसुख मळे. ॥ २५ ॥
एैगो बंधइ कम्मं, एगो वह बंध मरण- वसणाई | विसहइ भवम्मि भमडइ, एगु चिअ कम्मवेलविओ २६
आ जीव एकलो ज कर्मबंध करे छे, अने वध बन्ध मरण अने आपत्ति एकलाने ज सहन करवी पडे छे, पण जे स्त्री- पुत्रादिने माटे तें अनेक प्रकारना पापारंभ कर्या ते कोइ तारी वेदनानो भाग लेवा आवशे नहीं. art कर्मी उगायेलो एवो आ जीव एकलो ज संसारमां भटक्या करे छे, पण जो वीतरागना वचन उपर श्रद्धा
* एकोनात कर्म, एको वध-बन्ध-मरण - व्यसनानि । विषहते भवे भ्राम्यति, एक एव कर्मवञ्चितः ॥ २६ ॥
भ.वै. २
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( १८ )
राखी धर्ममां आसक्त थाय तो संसारना बन्धन - छेद
नादि दुःखोथी छूटे ॥ २६ ॥
"
अन्नो न कुणइ अहिअं, हिअंपि अप्पा करेइ न हु अन्नो । अप्पकयं सुह- दुक्खं, भुंजसि ता कीस दीणमुहो ? २७
हे जीव ! तुं एम धारेछे के अमुक माणसे मारुं बगाड्युं, अने फलाणाये सुधार्युः एम धारी राग-द्वेष करे छे. पण आ जगत्मां तारुं कोइ बगाडनार या सुधारनार नथी, तुं पोते ज तारुं हित या अहित करेछे, अने तुं पोते ज सारां नरसां कर्म करी सुख-दुःखने भोगवे छे; बीजो कोइ हिताहित करतो नथी, तो पछी शा माटे दयामणुं मुख करे छे ?, अने बीजाओना दोष देखे छे ? ॥ २७ ॥
बहुआरंभविढत्तं, वित्तं विलसन्ति जीव ! सयणगणा । तज्जणियपावकम्मं, अणुहवसि पुणो तुमं चेव ॥ २८ ॥
* अन्यो न करोत्यहितं हितमप्यात्मा करोति नैवाऽन्यः ।
आत्मकृतं सुख-दुःखं, भु ततः कस्माद् दीनमुखः १ ॥ २७ ॥ + बहारम्भाऽर्जितं, वित्तमनुभवन्ति जीव ! खजनगणाः । तज्जनितपापकर्म, अनुभवसि पुनस्त्वमेव ॥ २८ ॥
"
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हे जीव! तें खेती व्यापारादि अनेक प्रकारना आरंभ करी, कूड कपट प्रपंचादि अनेक प्रकारना अनर्थों करी, नीचसेवादि अनेक प्रकारनां अकार्यो करी, अने परदेशभ्रमणादि अनेक प्रकारना जोखम खेडी महा परिश्रमे धन उपार्जन कर्युः परन्तु ते धनने स्वजन-सगा संबन्धीओ विलसे छे-भोगवे छे, एटले ते धननुं फळ तो तेओ भोगवे छे!; पण ते द्रव्य उपार्जन करतां अनेक प्रकारनां पापकर्मों तो तारे ज भोगवां पडे छे, तेओ कोइ भोगववा आवता नथी. माटे हे आत्मन् ! कांइक समज. बीजाओने माटे पापना पोटला बांधी दुःखी न था, अने न्यायथी धन उपार्जन करी यथाशक्ति धर्मकार्योमां तेनो व्यय कर, के जेथी तारो परिश्रम फलीभूत थाय. ॥ २८ ॥ अह दुक्खियाई तह भुक्खियाई जह चिंतियाई डिंभाई। तह थोपि न अप्पा, विचिंतिओ जीव! किंभणिमो?॥
हे जीव ! तें मूढ बनी 'अरे! आ मारा बाळक दु
* अथ दुःखितास्तथा बुभुक्षिता यथा चिन्तिता डिम्भाः ।
तथा स्तोकमपि नात्मा, विचिन्तितो जीव ! किं भणामः ? ॥२९॥
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(२०) खीया छे, भूख्या छे, वस्त्र रहित छे' इत्यादि रात्रिदिवस चिन्तवन कर्यु, तेओने पडती अगवडो टाळवा इलाजो लीधा. पण ते तारा आत्मानी थोडी पण चिन्ता करी नहीं के में मारा आत्मानुं शुंसार्थक कर्यु ?. थोडी पण आत्मानी चिन्ता करी होत तो सुखी थात, केवल रात्रि-दिवस परभावमां ज मग्न रह्यो. तुं मूढ बन्यो छे!, तने केटलो उपदेश आपीए ?-वधारे शुं कहीए ?. खणभंगुरं सरीरं, जीवो अन्नो अ सासयसरुवो। कम्मवसा संबंधो, निब्बंधो इत्थ को तुज्झ ? ॥ ३०॥
हे जीव ! आ शरीर क्षणभंगुर छे-क्षण विनाशी छे-अशाश्वतुं छे, अने आत्मा तेथी जुदो शाश्वत स्वरूप छे-अविनाशी छे, कर्मना वशथी तारो तेनी साथे संबन्ध थयो छे, तो पछी ताराथी विरुद्ध धर्मवाळा एवा आ शरीरमां तारी शी मूच्छो छ ?, शरीर उपरथी ममत्वभाव त्यागी आत्मस्वरूपमा रमण कर. ॥३०॥ कह आयं कह चलियं,तुमंपिकह आगओ कहंगमिही।
* क्षणभङ्गुरं शरीरं, जीवोऽन्यश्च शाश्वतस्वरूपः ।
कर्मवशात् सम्बन्धो, निर्बन्धोऽत्र कस्तव ? ॥ ३० ॥ + कुत आगतं कुत्र चलितं, त्वमपि कुत आगतः कुत्र गमिष्यसि ।
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(२१) अन्नुन्नपि न याणह, जीव! कुटुंबं कओ तुज्झ ? ॥३१॥ ___ आत्मन् ! जेना उपर तारो घणो मोह छे–घणी प्रीति छे ते मात पीता पत्नी पुत्र विगेरे कुटुम्ब क्याथी आव्यु ?, अने क्यां गयुं ?. तुं पण कइ गतिमांथी आव्यो ?, अने क्यां जइश ?. आ प्रमाणे कुटुम्बनी तने अने तारी कुटुम्बने खबर पण नथी तो पछी तारु ए कुटुंब क्यांथी ?, अने तुं कुटुम्बनो क्याथी ?, के जेथी तुं 'माझं कुटुम्ब माझं कुटुम्ब' करतो भटके छ ? ॥३॥ खंणभंगुरे सरीरे, मणुअभवे अब्भपडलसारिच्छे। सारं इत्तियमेत्तं, जं कीरइ सोहणो धम्मो ॥ ३२ ॥ ___ आ क्षणभंगुर शरीरमां, अने वादळांना गोटानी जेम जलदी विनाश पामता आ मनुष्यभवमां सार मात्र एटलो ज छ के-सुन्दर अने दोषरहित वीतराग धर्मर्नु सेवन करीए. माटे हे जीव ! वीतरागधर्मनुं सेवन कर, ते विना बीजो कांइ आ संसारमा सार नथी ॥ ३२॥
* अन्योन्यमपि न जानीथो, जीव ! कुटुम्बं कुतस्तव ? ॥ ३१ ॥ + क्षणभङ्गुरे शरीरे, मनुजभवेऽभ्रपटलसदृक्षे । सारमेतावन्मात्रं, यक्रियते शोभनो धर्मः ॥३२॥
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(२२) जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो॥३३॥
हे जीव ! आ जगत्मा जन्मनु दुःख, घडपणर्नु दुःख, अनेक प्रकारनां रोगोनां दुःख, तथा अनेक प्रकारनां मरणनां दुःख छे. अरे! आ संसार खरेखर दुःखमय छे, जेनी अंदर प्राणीओ अनेक प्रकारना क्लेशो भोगवी रह्या छे. आवा जन्म-मरणादि अनेक प्रकारनां दुःखो अनुभवता छतां तेमां आसक्त थइ रह्या छे ए महा आश्चर्य छे! ॥३३॥ जाव न इंदियहाणी, जाव न जररक्खसी परिप्फुरई। जाव न रोगविआरा, जाव न मच्चू समुल्लिअई॥३४॥
हे जीव ! ज्यां सुधी इन्द्रियो क्षीण थइ नथी, ज्यां सुधी जरा रूपी राक्षसी व्यापी नथी, ज्यां सुधी रोगविकारो प्रगट थया नथी, अने ज्यां सुधी काळना पा
* जन्मदुःखं जरादुःखं, रोगाश्च मरणानि च ।
अहो ! दुःखो हि संसारो, यत्र क्लिश्यन्ते जन्तवः ॥ ३३ ॥ + यावद् नेन्द्रियहानिर्यावन्न जराराक्षसी परिस्फुरति । यावद् न रोगविकारा, यावद् न मृत्युः समुच्छ्ष्यिति ॥ ३४ ॥
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( २३ )
शमां सपडायो नथी त्यां सुधीमां वीतराग धर्मनुं सेवन करी ले-जेम बने तेम जलदीथी धर्मसाधन करी ले. ||३४|| जैह गेहम्मि पलित्ते, कूवं खणिडं न सक्कए कोइ । तह संपत्ते मरणे, धम्मो कह कीरए ? जीव ! ॥ ३५ ॥
जेम घरमा चोतरफथी आग लागे त्यारे कूवो खोदी पाणी काढी बळता घरने ओलववा कोइ पण समर्थ न थाय - अर्थात् आग लागे त्यारे कूवो खोदवो नकामो छे; तेम हे आत्मन् ! तने मरणकाळ प्राप्त थशे त्यारे तुं धर्मसाधन केवी रीते करी शकीश ?, माटे जरा विचार कर !, अने विषय - कषायथी विरक्त थइ धर्मनुं शरण करी ले के जेथी मरण समये पश्चात्तापनो वखत न आवे. ॥३५॥ स्वमसासयमेयं, विज्जुल्लयाचंचलं जए जीअं । संझाणुरागसरिसं, खणरमणीअं च तारुण्णं ॥ ३६ ॥ हे जीव ! आ शरीरनुं सौन्दर्य अस्थिर छे, जगत्मां
* यथा गेहे प्रदीप्ते, कूपं खनितुं न शक्नोति कोऽपि तथा संप्राप्ते मरणे, धर्मः कथं क्रियते ? जीव ! ॥ ३५ ॥ + रूपमशाश्वतमेतद्, विद्युलताचञ्चलं जगति जीवितम् । सन्ध्यानुरागसदृशं, क्षणरमणीयं च तारुण्यम् ॥ ३६ ॥
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(२४)
जीन्दगी वीजळीना जेवी चंचळ छे, अने जुवानी सायंकालना पंचवर्णा रंग जेवी क्षणमात्र रमणीय छे; माटे ते अस्थिर चंचळ अने क्षणभंगुर भावोनो सेवक न बनतां प्रभुसेवामां दत्तचित्त था. ॥ ३६ ॥
गैंयकण्णचंचलाओ, लच्छीओ तिअसचावसारिच्छं । विसयसुहं जीवाणं, बुज्झसु रे जीव ! मा मुज्झ ॥३७॥
हे आत्मन् ! लक्ष्मीओ हाथीना कान जेवी चंचळ छे, अने विषयसुख इन्द्रधनुष्य जेवुं क्षण भंगुर छे; माटे जरा जाण था - बोध पाम, मूर्ख बनी मोहमूढ न था. ॥ ३६ ॥ जैह संझाए सउणा - ण संगमो जह पहे अ पहिआणं । सयणाणं संजोगो, तहेव खणभंगुरो जीव ! ॥ ३८ ॥
हे जीव ! जेम अनेक प्रकारना पक्षीओ भिन्न भिन्न दिशाएथी आवीने एकठां थाय छे, अने सवार थतां पोतपोताने मनगमते स्थळे चाल्या जाय छे. तथा रस्तामां
* गजकर्णचञ्चला लक्ष्म्यस्त्रिदशचापसदृक्षम् ।
विषयसुखं जीवानां, बुध्यख रे जीव ! मा मुह्य ॥ ३७ ॥ + यथा सन्ध्यायां शकुनानां सङ्गमो यथा पथि च पथिकानाम् । वजनानां संयोगस्तथैव क्षणभङ्गुरो जीव ! ॥ ३८ ॥
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(२५) भिन्न भिन्न मुसाफरो एकठा थाय छे, अने थोडो वखत विश्रान्ति लइ पोतपोताने रस्ते पडे छे. तेम आ संसारमां सगां-संबन्धीओनो संबन्ध क्षणभङ्गुर छे, तेओ पोतपोताना कर्मने अनुसारे भिन्न भिन्न गतिमांथी आवी एकठा थया छ, अने कर्मने अनुसारे सुख-दुःख भोगवी आयुष्य पूर्ण थतां पोतपोताने योग्य गतिमा चाल्या जशे. तो पछी शा माटे तेओमां ममत्व राखी धर्मनो सत्य मार्ग भूली संसारमा बावरो थइ भटके छे?.॥३८॥
निसाविरामे परिभावयामि, गेहे पलित्ते किमहं सुयामि ।
डझन्तमप्पाणमुवक्खयामि, जं धम्मरहिओ दिअहा गमामि ॥ ३९ ॥ हे जीव ! तारे पाछली रात्र जागृत थइ निर्मळ चित्ते विचारवं जोइए के-"आ बधा अमूल्य दिवसो धर्म विना फोगट केम गुमायु ?, अने आ शरीररूपी घर वृद्धावस्था, अनेक प्रकारना रोगो, अने व्याधिरूपी
* निशाविरामे परिभावयामि, गेहे प्रदीप्ते किमहं खपिमि। . दहन्तमात्मानमुपेक्षे, यद् धर्मरहितो दिवसानू गमयामि ॥ ३९ ॥
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(२६) अग्निथी बळवा मांड्युं छे छतां तेमा हुं केम सूइ रह्यो छु?, अने तेमां बळता आत्मानी शा माटे उपेक्षा करूंछु?" । आ प्रमाणे विचारी श्रीवीतराग धर्मर्नु आचरण करी दिवसो सफळ कर, अने प्रमाद त्यागी आत्मसाधन करी ले.॥३९॥ जाँ जा वच्चइ रयणी, न य सा पडिनियत्तइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अहला जन्ति राइओ ॥ ४० ॥
जे जे रात्रि-दिवस जायछे ते पाछा आवता नथी. धर्मने नहीं करनार प्राणीना रात्रि-दिवसो निष्फळ जाय छे. जेटलो समय धर्मकरणीमां जाय छे तेटलो ज सफळ थाय छे, माटे हे जीव ! धर्मकरणी विनाना तारा दिवसो पशुनी जेम निष्फळ जाय छे तेनो विचार कर, अने जाग्या त्यांथी सवार गणी धर्मकरणीमां दत्तचित्त था, के जेथी दुर्लभ मनुष्यभव सार्थक थाय. ॥ ४० ॥ जस्सऽथि मच्चुणा सक्खं, जस्स अस्थि पलायणं ।
* या या ब्रजति रजनी, न च सा प्रतिनिवर्तते ।
अधर्म कुर्वतोऽफला यान्ति रात्रयः॥ ४०॥ + यस्याऽस्ति मृत्युना सख्यं, यस्याऽस्ति पलायनम् ।
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(२७)
जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥ ४१ ॥
जेने मृत्युनी साथे भाइबन्धी होय ते कदाच एम विचारे के - मृत्युने समजावीने पण थोडो वखत रोकी राखीश, अने धर्मसाधन करी लइश. परन्तु हे जीव ! मृत्यु तो तारो कट्टर दुश्मन छे, तो पछी 'काले धर्मसाधन करीश' ए प्रमाणे शा माटे 'काल' नो भरोसो राखी प्रमादमां दिवसो गुमावे छे ?, 'काल' कोणे दीठी छे ?, आवती काल सुधी जीवीश तेनी शी खात्री ?; माटे आजे ज धर्म करवाने उद्यत था । वळी जेने मृत्यु थकी न्हासी जवानुं सामर्थ्य होय ते कदाच विचारे के पर्वत गुफामां अथवा एवा कोइ निर्भय स्थानमां पलायन करी जइश, अने काळना सपाटामाथी छटकी जश !, पण हे आत्मा ! तारी एवी शक्ति नथी के तुं मृत्युथी बची जाय. क्रूर काळ ओचिंतो छापो मारशे त्यारे शुं करीश १, माटे भविष्य उपर आधार राख नहीं, अने जे धर्मसाधन करवानुं छे ते आजे ज करी ले. वळी जे जाणतो होय के मारे मरवानुं नथी, ते कदाच एवी
* यो जानाति न मरिष्यामि, स खलु काक्षेत श्वः स्यात् ॥ ४१ ॥
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(२८) इच्छा राखे के-आजे नहीं तो काले धर्मसाधन करीश, तो ते युक्त छे. परन्तु तारे अवश्य मरवानुं तो छ ज, तो पछी आगामी काल उपर शा माटे भरोसो राखे छे ?.। __ कोइनी मृत्यु साथे मित्रता नथी, कोइ मृत्युना सपाटामांथी न्हासी शके तेम नथी, तेम दरेकने मरवानुं अवश्य छे तो पछी हे आत्मा! तुं भविष्य उपर भरोसो राख नहीं, जे धर्मकरणी करवानी होय ते प्रमाद त्यागी आजे ज करी ले. ॥४१॥ दंडैकलिअं करित्ता, वच्चन्ति हु राइओ यदिवसा य । आउं संविल्लन्ता, गया वि न पुणो नियत्तन्ति ॥४२॥
जेम लोको फाळका रूपे रहेला सुतरने दंड उपर चडावी उकेले छे, तेम रात्रि-दिवस आयुष्य रूपी सुतरने मनुष्यभवादिरूप दंड उपर चडावी उकेली रह्या छप्रति दिवस आयुष्य ओछु थतुं जाय छे, अने गयेला रात्रि-दिवस पाछा आववाना नथी, ॥ ४२ ॥
* दण्डकलितं कृखा, व्रजन्ति खलु रात्रयश्च दिवसाश्च ।
आयुः संविलयन्तो, गता अपि न पुनर्निवर्तन्ते ॥ ४२ ॥
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(२९) हेह सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं णेइ हु अंतकाले ।
न तस्स माया न पिया न भाया, कालम्मि तम्मिसहरा भवन्ति ॥४३॥ जेम सिंह टोळामांथी मृगलाने पकडी लइ जायछे, तेम अन्तकाळे मृत्यु मनुष्यने पकडी लइ जाय छे. ते वखते माता पिता के भाइ कोइ पण एक क्षणमात्र पण रक्षण करवाने समर्थ थतुं नथी. सहु कोइ देखतां काळ लइ जायछे, अने सगां संबन्धीओ बेसी रहेछे; पण कोइ मरण समये मरणना भागी थता नथी. ॥ ४३ ॥ जीअंजलबिंदुसमं, संपत्तीओ तरंगलोलाओ। सुमिणयसमं च पिम्मं, जं जाणसुतं करिजासु ॥४४॥
आ जीन्दगी डाभना अग्रभाग उपर रहेला जलना बिन्दु समान अस्थिर छे. संपत्तिओ समुद्रना कलोल जेवी चंचळ छे, एटले के एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे
* यथेह सिंह इव मृगं गृहीत्वा, मृत्युनरं नयति खल्वन्तकाले ।
न तस्य माता न पिता न भ्राता, काले तस्मिन् अंशधरा भवन्ति ॥४३॥ + जीवितं जलबिन्दुसमं, सम्पत्तयस्तरङ्गालोलाः ।
खासमं च प्रेम, यद् जानीयास्तत् कुरुष्व ॥ ४४ ।।
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(३०)
जलदी जती रहेछे। अने स्त्री- पुत्रादि उपरनो प्रेम स्वप्न समान छे, एटले के क्षणमात्रमां नाश पामे छे. हे जीव ! आ प्रमाणे जो तुं खरा अन्तःकरणथी जाणतो होय तो जाण्या प्रमाणे वर्तन कर-जे कांइ धर्मकरणी करवी घटे ते कर, अने श्रीजिनेन्द्रना धर्मने साचो जाणी तेने विषे उद्यम कर ॥ ४४ ॥
संझराग- जलबुब्बुओवमे, जीविए य जलबिंदुचंचले । जुवणे य नइवेगसन्निभे, पावजीव ! किमियं न वुझसे ? ॥ ४५ ॥
सन्ध्या समयना रंग, जलना परपोटा, अने डाभ उपर रहेला जलना बिन्दु समान आ जीन्दगी चंचल छे- सन्ध्या समयना लाल पीळा लीला विगेरे रंगो घडी बेघडीमां नाश पामे छे, पाणीना परपोटा थोडा ज वखतमां हता नहोता थइ जाय छे, अने डाभना अग्र
* सन्ध्याराग जलबुद्बुदोपने, जीविते च जलबिन्दुचञ्चले । यौवने च नदीवेगसन्निभे, पापजीव । किमिदं न बुध्यसे ? ॥ ४५ ॥
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( ३१ )
भाग उपर रहेलुं पाणीनुं टीपुं थोडी वारमां ज नाश पामेछे, तेम आ जीन्दगी चंचळ छे, अस्थिर छे, अने थोडी वारमां ज नाश पामे तेवी छे. वळी आ यौवन नदीना पूरना वेग समान जतां वार न लागे तेवुं छे, अर्थात् क्षणिक छे. तो पण हे पापी जीव ! आ सर्व क्षणिक जाणतो छतां केम हजु सुधी बुझतो नथी ? ॥ ४५ ॥ अन्नत्थ सुआ अन्नत्थ, गेहिणी परिअणोवि अन्नत्थ । भूअबलिव कुटुंबं, पक्खित्तं हयकयन्तेण ॥ ४६ ॥
भूत-प्रेतादिने नाखेला बळी - बाकळा जेम छिन्नभिन्न थइ जाय छे- भिन्न भिन्न विखराइ जाय छे; तेम क्रूर यमदेवे तारा पुत्रोने अन्यगतिमां फेंकी दीधा, तारी प्राणप्रियाने कोइ बीजी गतिमां मूकी दीधी, अने तारा कुटुम्ब - कबीलाने कोइ बीजे स्थळे नाखी दीधा, आ प्रमाणे यमदेवे बधाने वेर - वीखेर करी नाख्याभिन्न भिन्न गतिमां फेंकी दीधा ! अर्थात् मन्त्र साधन
* अन्यत्र सुता अन्यत्र, गेहिनी परिजनोऽप्यन्यत्र | भूतबलिरिव कुटुम्ब, प्रक्षिप्तं हतकृतान्तेन ॥ ४६ ॥
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( ३२ )
करवावाळा पुरुषो जेम बळी - बाकळा भिन्न भिन्न जग्याए फेंके छे, तेम यमदेव देखतां देखता सर्व कुटुंबने भिन्न भिन्न गतिमां नाखी दे छे. माटे हे जीव ! तेओ उपर खोटो ममत्वभाव त्यागी आत्मसाधन करवाने उद्यमवंत था ॥ ४६ ॥
जीवेण भवे भवे, मिल्लियाइ देहाइ जाइ संसारे । ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा अनंतेहिं ॥ ४७ ॥
आ जीवे संसारमां भवोभवने विषे जेटला देह कर्या तेनी जो गणत्री करवा बेसीए तो अनन्ता सागरोपम जेटलो काळ चाल्यो जाय तो पण गणत्री करी शकीए नहीं ! अर्थात् आ जीवे भवोभवमां भटकी भटकी अनन्ता देह करीने मूकी दीधा छे. तो पछी हे आत्मा ! आवा क्षणभंगुर अने अशुचिथी भरेला शरीर उपर शा माटे मूर्छा राखे छे ?, हवे तो आवा विनाशी शरीर उपरथी मूर्छा उतारी अशरीरी थवाने प्रयत्नशील था. ॥४७॥
* जीवेन भवे भवे, मेलितानि देहानि यानि संसारे । तेषां न सागरैः क्रियते सयानन्तैः ॥ ४७ ॥
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(३३) नर्यणोदयंपि तासिं, सागरसलिलाओ बहुयरं होइ । गलियं रुअमाणीणं, माऊणं अन्नमन्नाणं ॥४८॥
हे आत्मा! अन्य अन्य भवमां थयेली भिन्न भिन्न माताओ, के जेओ तारी विपत्ति दुःख अने मरणने लीधे रुदन करती हती ते माताओना नेत्रना आंसुर्नु परिमाण करवा बेसीए तो समुद्रना पाणीथी पण अतिशय अधिक थइ जाय !. अरे जीव ! तें अनन्ती माताओ करी, अने ते बधीने रोती ककळती मूकी आ भवमां आव्यो छे, माटे हवे परमार्थनो विचार कर, अने फरीथी माता न करवी पडे, अने जन्म जरा तथा मरणना फेरामां न भटकवू पड़े तेने माटे धर्मकरणीमा प्रयत्नशील था. ॥४८॥ जं नैरए नेरइया, दुहाइ पावन्ति घोरऽणताइ । तत्तो अणंतगुणियं, निगोअमज्झे दुहं होइ ॥ ४९ ॥
* नयनोदकमपि तासां, सागरसलिलाद् बहुतरं भवति ।
गलितं रुदतीनां, मातॄणाम् अन्यान्यासाम् ॥ ४८ ॥ + यद् नरके नैरयिका, दुःखानि प्राप्नुवन्ति घोराऽनन्तानि ।
ततोऽनन्तगुणितं, निगोदमध्ये दुःखं भवति ॥ ४९ ॥
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( ३४ ) तैंम्मवि निगोअमज्झे, वसिओ रे जीव ! कम्मवसा । विसहन्तो तिक्खदुक्खं, अणतपुग्गलपरावत्ते ॥५०॥
नरकमां नारकी जीवो अनन्तां घोरदुःख पामेछे, ते नरकनां दुःखथी पण अनन्तां अधिक दुःखो निगोदमां भोगववां पडे छे - निगोदमां अनंता जीवोने रहेवानुं एक ज शरीर होवाथी घणा सांकडा स्थानमां रही समये समये जन्म-मरणादिनां अनन्तां दुःखो जीवने भोगववां पडेछे. ॥ ४९ ॥
रे जीव ! आवी भयंकर निगोदमां पण विविध कर्मने वश थइ तुं अनन्त पुद्गल परावर्त सुधी घोर दुःखोने सहन करतो वस्यो, तें निगोदनां असह्य दुःखो अनन्तीवार भोगव्यां, माटे हवे तेवां दुःखो न भोगववां पडे ते माटे वीतरागधर्म आराधवाने तत्पर था. ॥ ५० ॥
निहरी कहवि तत्तो पत्तो मणुअत्तणंपि रे जीव ! । तत्थवि जिणवरधम्मो, पत्तो चिंतामणिसरिच्छो ॥ ५१ ॥
* तस्मिन्नपि निगोदमध्ये, उषितो रे जीव ! कर्मवशात् । विषहमाणस्तिक्ष्णदुःखं, अनन्तपुद्गलपरावर्तीन् ॥ ५० ॥ + निःसृत्य कथमपि ततः प्राप्तो मनुजत्वमपि रे जीव ! । तत्रापि जिनवरधर्मः, प्राप्तश्चिन्तामणिसदृक्षः ॥ ५१ ॥
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(३५)
पत्ते वि तम्मि रे जीव !, कुणसि पमायं तुमं तयं चेव । जेणं भवंधकूवे, पुणो वि पडिओ दुहं लहसि ॥ ५२ ॥
हे जीव ! तुं अनेकप्रकारनी अकामनिर्जराए करीने, तथा निगोदनी भवस्थिति पूरी करीने महाकष्टे भाग्ययोगे अतिदुर्लभ एवो मनुष्य भव पाम्यो; अने तेमां पण चिन्तामणिरत्न समान मनोवांछित सुख आपनार श्रीजिनेन्द्रधर्म पाम्यो आवो चिन्तामणि तुल्य धर्म प्राप्त करीने पण जो तुं प्रमाद करेछे तो फरीथी भवरूपी अन्धकूवामां पडी जन्म-मरणादि घोर दुःख पामीश- फरीथी मनुष्य भव, अने तेमां पण जिनधर्मनी प्राप्ति अतिदुर्लभ छे. माटे हे आत्मा ! निद्रा विकथादि प्रमाद त्यागी धर्मकरणीमां उद्यमशील था. ॥ ५१-५२ ॥
वलद्धो जिणधम्मो, न य अणुचिण्णो पमायदोसेणं । हा जीव ! अप्पवेरिअ !, सुबहु परओ विरिहिसि ५३
* प्राप्तेऽपि तस्मिन् रे जीव !, करोषि प्रमादं त्वं तमेव । येन भवान्धकूपे, पुनरपि पतितो दुःखं लप्स्यसे ॥ ५२ ॥ + उपलब्धो जिनधर्मो, न चाऽनुचीर्णः प्रमाददोषेण । हा जीव ! आत्मवैरिक ! सुबहु परतः खेत्स्यसे ॥ ५३ ॥
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( ३६ )
हे जीव ! तुं महाभाग्ययोगे जिनधर्मने पाम्यो, छतां प्रमाददोषथी तें आचर्यों नहीं जेथी खरेखर खेद थाय छे. अरे आत्मवैरी ! रत्न समान धर्म पामवा छतां फक्त प्रमाददोषथी नहीं आचरवाथी तने परलोकमां घणां दुःख सहन करवां पडशे अने ते वखते तुं खेद करीश. माटे हवेथी पण जाग्या त्यांधी सवार गणी, आत्मानो कट्टरशत्रु जे प्रमाद तेने त्यागी, अप्रमादपणे धर्म
"
कर. ।। ५३ ।।
सोअँन्ति ते वराया, पच्छा समुवद्वियम्मि मरणम्मि । पावपमायवसेणं, न संचियो जेहि जिणधम्मो ॥५४॥
जेओए मद, विषय, कषाय, निद्रा, अने विकथारूप महादुष्ट प्रमादने आधीन थइ जिनधर्म आदर्यो नथी ते बापडा रांक जीवो पछीथी मरण आवी पहोंचतां पश्चात्ताप करेछे के " अरेरे! अमे कांइ धर्मसाधन करी शक्या नहीं, हवे परलोकमां शी गति थशे ?. धर्म कर्या विना परलोकमां क्यांथी सुखी थइशुं ', त्यां
* शोचन्ते ते वराकाः, पश्चात् समुपस्थिते मरणे । पापप्रमादवशेन, न सञ्चितो यैर्जिनधर्मः ॥ ५४ ॥
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(३७)
अतिभयङ्कर दुःखो भोगववां पडशे. अरेरे! हवे शुं
करवुं ?" इत्यादि घणो ज शोक
करेछे. माटे हे जीव ! ले, के जेथी मरण
तुं अत्यारथीज धर्मकरणी करी समये पश्चात्ताप करवो न पडे, अने परलोकमां कारमां
दुःख सहन करवां न पडे ॥ ५४ ॥
.
·
धी धी धी !!! संसारं, देवो मरिऊण जं तिरी होइ । मरिऊण रायराया, परिपच्चइ नरयजालाए ॥ ५५ ॥
जे संसारमां महासमृद्धिवंत अने अप्सराओना विलासो वडे सुखमां मग्न थयेलो देव जेवो उत्तम जीव पण मरीने तिर्यंच थाय छे. वळी जे संसारमा छ खंडनो भोक्ता, चोसठ हजार सुंदरीओनो स्वामी, तथा जेनी चोसठ हजार यक्षो अने बत्रीश हजार मुकुटबद्ध राजाओ रात्रि - दिवस सेवा करी रह्या छे, एवो राजाधिराजमहाराजा चक्रवर्ती पण मरीने नरकनी ज्वाला वडे पकवायछे, अने परमाधामीओए करेली भयंकर वेद
* धिग् घिग् धिक् 1 11 संसारं, देवो मृत्वा यत् तिर्यग् भवति । मृत्वा राजराजः, परिपच्यते नरकज्वालया ॥ ५५ ॥
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(३८) नाओने सहन करेछे !, एवा आ संसारने धिक्कार हो!, धिक्कार हो !!!. ॥ ५५ ॥ जाई अणाहो जीवो, दुमस्स पुप्फ व कम्मवायहओ। धण-धन्ना-हरणाई, घर-सयण-कुडुंब मिल्लेवि ॥ ५६ ॥
जेम पवनना झपाटाथी वृक्षतुं पुष्प खरी पडेछे, तेम कर्मरूपी पवनने पराधीन थयेलो आ बीचारो अनाथ जीव पोते मेळवेलां धन धान्य घरेणां घर सगा-वहाला अने कुटुम्बने पडता मेली चाल्यो जायछे !. माटे हे आत्मन् ! तुं कर्मरूपी पवनने आधीन छे, तेनो झपाटो लागतां तारे बधुं छोडी चाल्युं जवू पडशे, ते वखते तारी साथे कांइ पण आवनार नथी. माटे परिणामे जे वस्तु तारी साथे आवनार नथी तेना उपरथी मोह त्यागी, परभवमां पण साथे आवी सुख करनार ज्ञान दर्शन अने चारित्रनुं आराधन कर. ॥ ५६ ॥
* यात्यनाथो जीवो, द्वमस्य पुष्पमिव कर्मवातहतः ।
धन-धान्या-ऽऽभरणानि, गृह-खजन-कुटुम्ब मुक्खाऽपि ॥ ५६ ॥
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( ३९ )
वैसियं गिरीसु वसियं, दरीसु वसियं समुद्दमज्झमि । रुक्खग्गे यवसियं, संसारं संसरणं ॥ ५७ ॥
हे आत्मन् ! संसारमां परिभ्रमण करतां तें केटलीएक वार पर्ततोमां निवास कर्यो, केटलीएक वार तुं गुफाओमां सिंहादिक रूपे वस्यो, केटलीएक वार वृक्षोना अग्रभागमां पक्षीरूपे निवास कर्यो, आवी रीते तने अनेक स्थळे भिन्न भिन्न स्वरूपे निवास करवो पड्यो !. तारे निवास करवाने कोइ पण एक स्थान नथी, तो पछी 'मारुं मारूं' करी शा माटे मिथ्याभिमान करेछे ?. आयुष्य पूरुं थतां कर्मने अनुसारे तारे निवास स्थान बदलवुं ज पडशे, माटे ममत्वभाव त्यागी समभावमां लीन था, के जेथी अक्षय अने नहीं बदलवुं पडे तेवुं स्थान मळे. ॥ ५७ ॥
देवो नेरइओत्ति य, कीड पयंगुत्ति माणुसो एसो ।
* उषितं गिरिषूषितं, दरीषूषितं समुद्रमध्ये ।
वृक्षाग्रेषु चोषितं, संसारं संसरता ॥ ५७ ॥
+ देवो नैरयिक इति च, कीटः पतङ्ग इति मानुष एषः ।
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वस्सी य विरुवो, सुहभागी दुक्खभागी य ॥१८॥
आ जीव कोइ वखत देव थयो, कोइ वखत नारकी थयो, कोइ वखत तिथंचगतिमां कीट-पतङ्ग थयो, ज्यारे कोइ वखत मनुष्य बन्यो. वळी कोइ वखत स्वरूपवान् थयो, अने कोइ वखत कुरूपी थयो. वळी कोइ वखत सुखीयो, अने कोइ वखत दुःखी थइ उदासीन बन्यो. आवी रीते आ संसाररूप नाटकशाळामां नाटकीयानी पेठे भिन्न भिन्न वेशमां उतरी भिन्न भिन्न भाव धारण कर्या, पण हजु सुधी अविनाशी अने स्थिर आत्मरूप पाम्यो नहीं. माटे हे आत्मा ! ए सर्व वेश अने भावोने विनश्वर अने असत्य जाणी शुद्ध आत्मरमण पामवाने राग-द्वेषनी परिणति दूर कर, के जेथी तेवा वेष धारण करी कलुषित थq न पडे. ॥ ५८ ॥ राउत्ति य दमगुत्तिय, एस सवागुत्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुजो, खलोत्ति अधणो धणवइत्ति ॥९॥
* रूपी च विरूपः, सुखभागी दुःखभागी च ॥ ५८ ॥ + राजेति च द्रमक इति च, एष श्वपाक इति एष वेदवित् । खामी दासः पूज्यः, खल इति अधनो धनपतिरिति ॥ ५९॥
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(४१) नैवि इत्थ कोवि नियमो, __ सकम्मविणिविट्ठसरिसकयचिहो। अन्नुन्नरूव-वेसो,
नडुब्व परिअत्तए जीवो ॥६०॥ (युग्मम्) आ जीव कोइ वखत राजा थयो, ज्यारे कोइ वखत भीखारी बनी उदरपूर्ति माटे घेर घेर भटक्यो.कोइवखत महाक्रूर चंडाल थयो, ज्यारे कोइ वखत वेदनो जाणकार महाधुरंधर विद्वान् बन्यो. कोइ वखत हजारो मनुष्योनो स्वामी थयो, ज्यारे कोइ वखत सेवक बनी पराधीन थयो. कोइ वखत जगतने वन्दनीय थयो, ज्यारे कोइ वखत महा नीच दुर्जन बनी जगतने धिक्कारवा योग्य बन्यो. कोइ वखत निर्धन महादरिद्री थयो, अने पोतानी आजीविकाने माटे पण विचार थइ पड्यो; ज्यारे कोइ वखत कुबेर भंडारी जेवो बेशूमारधननो स्वामी थयो. ॥ ५९ ॥ आवी रीते आ जीवने कोइ पण नियम ज नथी, कारण के आ संसाररूपी रंगभूमिमां पोताना कमने अनुसारे
* नाप्यत्र कोऽपि नियमः, स्वकर्मविनिविष्टसदृशकृतचेष्टः । अन्योन्यरूप-वेधो, नट इव परिवर्तते जीवः ॥ ६ ॥
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( ४२ )
भिन्न भिन्न रूप अने वेषने धारण करी आ जीव भिन्न भिन्न चेष्टा करतो भटक्या करे छे. माटे हे आत्मा ! हवे चेत, तें कर्मने आधीन थइ आ संसाररूपी नाटकमां घणा रूप वेष अने चेष्टाओ करी, पण हजु सुधी तारी सिद्धि थइ नहीं. तो हवे तारी गाढ निद्रामांथी जागृत था, अने जे क्रूरकर्मो तने नचावी रह्याछे तेओनो क्षय करवाने कर्मरहित श्रीवीतरागनुं रटन कर ॥ ६०॥
★
नरपसु वेअणाओ, अणोवमाओ असायबहुलाओ । रे जीव ! तर पत्ता, अनंतखुत्तो बहुविहाओ ॥ ६१॥
हे जीव ! तें साते नरकोमां, जेनी उपमा नथी एवी दुःखथी भरपूर घणा प्रकारनी वेदनाओ अनन्ती वार भोगवी, तो पण हजु सुधी तारी शुद्धि ठेकाणे आवी नहीं !. माटे हे मन्दमते ! हवे पाप करतां डर राख, कारण के ते पापनां फळ तारे ज भोगववां पडशे. ॥६२॥ देवत्ते मणुअत्ते, पराभिओगत्तणं उवगएणं ।
*
नरकेषु वेदना, अनुपमा अशातबहुलाः ।
रे जीव ! त्वया प्राप्ता, अनन्तकृत्वो बहुविधाः ॥ ६१ ॥ + देवत्वे मनुजत्वे, पराभियोगत्वमुपगतेन ।
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(४३) भीसणदुहं बहुविहं, अणंतखुत्तो समणुभूअं ॥ ६२ ॥ तिरियंगई अणुपत्तो, भीममहावेअणा अणेगविहा । जम्मण-मरणरहट्टे, अणंतखुत्तो परिन्भमिओ॥३३॥
हे जीव ! तें देवभवने विषे तथा मनुष्यभवने विषे परतंत्रताना पाशमां सपडाइ भयंकर घणा प्रकारदुःख अनन्ती वार अनुभव्युं ॥ ६२ ॥ वळी तुं तिर्यंच गतिमां उत्पन्न थयो त्यां अनेक प्रकारनी भयंकर महावेदनाओ भोगवी. आवी रीते चारे गतिमां जन्म अने मरण रूपी रेंटने विषे अनन्ती वार भटक्यो. आ जगत्मां एवं कोइ दुःख नथी के जे दुःख तें सहन कयुं न होय, आवी रीते अनन्ती वार घोर महाभयानक दुःख तें सहन काँ!. माटे हवे धर्मसाधन कर, के जेथी तेवां दुःख भोगववां न पडे. ॥ ६३ ॥
* भीषणदुःखं बहुविधम् , अनन्तकृलः समनुभूतम् ॥ १२ ॥ + तिर्यग्गतिमनुप्राप्तो, भीममहावेदना अनेकविधाः । जन्म-मरणाऽरघटे, अनन्तकृलः परित्रान्तः ॥ ६३ ॥
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(४४) जान्ति केवि दुक्खा, सारीरा माणसा य संसारे। पत्तो अणंतखुत्तो, जीवो संसारकंतारे॥ ६४ ॥ __जीवे आ संसार रूपी अटवीमां परिभ्रमण करतां जेटलां कोइ रोग विगेरे शारीरिक दुःखो छ, अने जेटलां इष्टवियोगादि मानसिक दुःखो छे, ते सर्व अनन्तीवार भोगव्यां छे ॥ ६४॥ तेण्हा अणंतखुत्तो, संसारे तारिसी तुम आसी। जं पसमेउं सबो-दहीणमुदयं न तीरिजा ॥ ६५ ॥ आसी अणंतखुत्तो, संसारे ते छुहावि तारिसिया । जं पसमेउ सबो, पुग्गलकाओ वि न तीरिजा ॥६६॥
हे जीव ! तने नरकभवरूप संसारने विषे अनन्तीवार एवी तीव्र तृषानां दुःख भोगवां पड्यां छे के जे
* यावन्ति कान्यपि दुःखानि, शारीराणि मानसानि च संसारे ।
प्राप्तोऽनन्तकृलो, जीवः संसारकान्तारे ॥ ६४ ॥ + तृष्णाऽनन्तकृतः, संसारे तादृशी तवाऽऽसीत् ।
यां प्रशमयितुं सर्वोदधीनामुदकं न शक्नुयात् ॥६५॥ + आसीद् अनन्तकृत्वः, संसारे तव क्षुधाऽपि तादृशिका ।
यां प्रशमयितुं सर्वः, पुद्गलकायोऽपि न शक्लयात् ॥६६॥
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(४५) तृषाने छीपववाने सघळा समुद्रनुं जल पण समर्थ न थाय. अहो ! तुं पराधीन हतो त्यारे तने केवी तीनतृषाने सहन करवी पडी ?, ज्यारे अहीं स्वतंत्रपणे धर्मनिमित्ते-तारा पोताना हितने माटे चोविहारो उपवास छठ के अठम, अथवा छेवटे रात्रिनो ज चोविहार करवानो गुरुमहाराज उपदेश आपछे त्यारे तने विचार थाय छे ! ॥६५॥ वळी नरकभवने विषे अनन्तीवार एवी तीन क्षुधानी वेदनाओ भोगववी पडी, के जे क्षुधाने शान्त करवाने जगत्ना सर्व पुद्गलो पण समर्थ न थाय, आवी सांभळतां कंपारी छूटे एवी अवर्णनीय क्षुधानी वेदनाओ ते परवशपणे अनन्तीवार अनुभवी, ज्यारे अहीं स्वाधीनपणामां धर्मनिमित्ते-आत्माना कल्याणने माटे उपवास अथवा एकास' करवाने पण लांबो विचार करवो पडे छे!. आत्मन् ! नरकने विषे आवी आवी असह्य तृषा अने क्षुधानी वेदनाओ पराधीनपणे तारे सहन करवी पडी, के जे सहन करवा छतां तारी सिद्धि थइ नहीं. पण अत्यारे तुं मनुष्यभव पाम्यो छे, सारासारनो विचार करी शके छे; तो हवे पण रसनेन्द्रियने वश थइ, आवेला अवसरने चूके तो
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( ४६ )
तारा जेवो कोण मूर्ख ?. माटे स्वाधीनपणामा ज तपस्यादि करी आत्माना सहज गुणो प्रगटाव, के जेथी भयंकर नारकीनी वेदनाओ भोगववानो वखत न आवे. ॥ ६६ ॥
काऊणमणेगाई, जम्म-मरणपरियहणसयाई । दुक्खेण माणुसत्तं, जइ लहइ जहिच्छियं जीवो ॥६७॥ तं तह दुल्लहलं, विज्जुल्लयाचंचलं च मणुयत्तं । धम्मम्मि जो विसीयइ, सो काउरिसो न सप्पुरिसो ६८
जीव अनेक सेंकडा जन्म अने मरणना परावर्तनना घणा दुःख भोगवीने महाकष्टे पोताने इष्ट एवं मनुष्यपणुं पामे छे ॥ ६७ ॥ आवा दस दृष्टान्ते दुर्लभ अने वीजळीना झबकारा जेवो चंचळ मनुष्यभव पामीने पण जे कोइ धर्मकृत्यमां प्रमाद करे ते कायर पुरुष समजवो, ते सत्पुरुषोनी पंक्तिमां गणावा लायक थतो नथी. माटे हे
* कृत्वाऽनेकानि, जन्म-मरणपरिवर्तनशतानि । दुःखेन मानुषत्वं यदि लभते यथेच्छितं जीवः ॥ ६७ ॥
+ तत् तथा दुर्लभलाभं, विद्युल्लताचञ्चलं च मनुजत्वम् । धर्मे यो विषीदति, स कापुरुषो न सत्पुरुषः ॥ ६८ ॥
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(४७) जीव ! तुं महाकष्टे पूर्ण पुण्योदये मनुष्यभव पाम्यो छे, तो तेने सार्थक कर. ॥ ६८॥
माणुस्सजम्मे तडि लद्धियम्मि,
जिणिंदधम्मो न कओ य जेणं । तुट्टे गुणे जह धाणुकरणं,
हत्था मलेवा य अवस्स तेणं ॥ ६९॥ अनन्ता भवरूप समुद्रमां भटकतां भटकतां कांठारूप मनुष्यजन्म प्राप्त करवा छतां जेणे जिनेन्द्रप्ररूपित धर्म को नहीं तेने, जेम धनुष्यनी दोरी तूटतां धनुर्धारी पुरुषने हाथ घसवा पडेछे तेम अवश्य हाथ घसवा पडेछे-पश्चात्ताप करवो पडेछे. माटे हे आत्मन् ! तने धर्म करवाने मनुष्यभवादि सामग्रीओ मळी छे, छतां जो प्रमाद करी तेओनो उपयोग नहीं करे, अने निरर्थक दिवसो गुमावीश, तो मरणसमये अतिशय पश्चात्ताप थशे. ॥ ६९॥
* मानुष्यजन्मनि तटे लब्धे, जिनेन्द्रधर्मो न कृतश्च येन । त्रुटिते गुणे यथा धानुष्ककेण, हस्ती मलयितव्यौ च अवश्यं तेन ॥६९॥
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( ४८ )
रे जीव ! निसुणि चंचल सहाव, मिल्लेवि णु सयलवि बज्झभाव ।
नवभेयपरिग्गहविविहजाल, संसारि अस्थि सहु इंदयाल ॥ ७० ॥
अरे जीव ! हितकर वाक्य सांभळ-आ सर्व धन्य धान्यादि नवप्रकारना परिग्रहनो समूह छे ते तारा आत्मगुणथी बाह्यभाव छे, तारा पोताना गुण तो ज्ञान दर्शन अने चारित्र छे. वळी आ नव प्रकारनो परिग्रह चंचळस्वभावी छे - क्षणविनाशी छे, संसारमां सर्व इन्द्रजाल समान छे - परमार्थे जोतां असार छे. वळी परिग्रह छोडीने तारे अवश्य परलोकमां जवुं ज पडशे, तो पछी अत्यारथी ज आ सर्व चंचळस्वभावी बाह्यभाव उपरथी मोह त्यागी अचलस्वभावी तारा आत्मधर्मनो शा माटे आदर नथी करतो . ॥ ७० ॥
पियं पुत्त-मित्त घर-घरणि-जाय, इहलोइय सङ्घ नियसुहसहाय ।
* रे जीव ! निशृणु चञ्चलखभावान्, मुक्त्वापि सकलानपि बाह्यभावान् । नवभेदपरिग्रहविविधजालान्, संसारेऽस्ति सर्वमिन्द्रजालम् ॥ ७० ॥
+ पितृ - पुत्र - मित्र - गृह गृहिणीजातम्, ऐहलौकिकं सर्वं निजसुखसहायम् ।
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(४९) नैवि अत्थि कोई तुह सरणि मुक्ख !, ___ इक्कल्लु सहसि तिरि-निरयदुक्ख ॥७१॥
रे मूर्ख आत्मन् ! आ लोकमां तने अतिशय वहाला एवा पिता पुत्र मित्र स्त्री तथा घरना माणसो विगेरे पोतानो ज स्वार्थ ताकता फरेछे, ते कोइ तारं शरण नथी. तेओने माटे कूड-कपट करी तारे एकलाने ज तिर्यच अने नरकगतिनां दुःखो सहन करवां पडशे; अने ते महाभयंकर दुःख वखते कोइ तारुं रक्षण करवाने आवशे नहीं. माटे हे मूढ ! हजु कांइक विचार, अने आश्रवभावमांथी निवृत्त थइ संवरभावमा परिणत था, के जेथी परलोक सुधरे. ॥ ७१॥ कुसग्गे जह ओसबिंदुए, थोवं चिट्ठह लंबमाणए । एवं मणुआण जीवियं, समयं गोयम !मा पमायए ७२ __ प्रभु श्रीमहावीर गौतम स्वामीने उपदेशे छ के हे गौतम ! जेम डाभना अग्रभाग उपर लटकी रहेढं झा
* नाऽप्यस्ति कोऽपि तव शरणे मूर्ख !, एकाकी सहिष्यसे तिर्यग्नरकदुःखानि ॥७१॥ + कुशाग्रे यथाऽवश्यायबिन्दुकः, स्तोकं तिष्ठति लम्बमानकः । एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः॥ भ. वै. ४
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(५०) कळनुं टीपु थोडो ज समय रहे छे-जोतजोतामा नीचे पडी जाय छे, तेम मनुष्योनुं जीवित पण जलदी नाश पामे तेवं छे. माटे एक समय पण प्रमाद करीश नहींधर्मने विष निरन्तर उद्यम कर, ।। ७२ ॥
संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच दुल्लहा । नो इवणमन्ति राइओ, नो मुलहं पुणरवि जीवियं७३ - हे भव्य प्राणीओ! तमे बुझो-सम्यक्त्व रत्न मेळववाने उद्यम करो, आवो अवसर फरी फरीने मळवो मुश्केल छे. समग्र प्रकारनी धर्मसामग्री मळवा छतां हजु केम प्रतिबोध पामता नथी ?, कारण के जेमणे धर्मकृत्य कर्यु नहीं तेमने परलोकमां सम्यक्त्व मळवू दुर्लभ छे.. गयेला रात्रि-दिवसो पाछा आववाना नथी, अने धर्मसाधन करवाने योग्य जीवित पार्छ मळवू सुलभ नथी, माटे धर्म सामग्री पामी प्रमाद न करो, ॥७३॥
* संबुध्यध्वं किं न बुध्यध्वं, संबोधिः खलु प्रेत्य दुर्लभा।
नैवोपनमन्ति रात्रयो, नो सुलभं पुनरपि जीवितम् ॥ ३ ॥
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(५१) डहरा बुड्डा य पासह, गन्भत्थावि चयन्ति माणवा । सेणे जह वयं हरे, एवमाउक्खयम्मि तुट्टइ ॥ ७४ ॥
हे प्राणीओ! तमे जुओ-केटलाएक मनुष्यो गर्भमां ज मरण पामे छे!, केटलाएक बाल्यावस्थामां ज मृत्युने शरण थायछे, केटलाएक युवावस्थामा वहाला स्त्री-पुत्रादिने मूकी मरी जायछे, ज्यारे केटलाएक वृद्धावस्थानां दुःख भोगवी भोगवी पग घसता मरणने आधीन थायछे. आवी रीते जेम बाजपक्षी तेतरने ओचिंतो झाली ले छे, तेम आयुष्यक्षय थतां यमदेव जीवितने हरेछे, माटे क्षण मात्र पण जीवितनो विश्वास नहीं राखी धर्मसाधन करवाने सावधान थाओ. ॥७४ ॥ तिहुयणजणं मरन्तं, दट्टण नयन्ति जे न अप्पाणं । विरमन्ति न पावाओ, धी धी! धिट्टत्तणं ताणं ॥७॥ __जेओ त्रणे भुवनना प्राणीओने मरता देखता छतां पोताना आत्माने धर्मने विष जोडता नथी, अने पाप
* बाला वृद्धाश्च पश्यत, गर्भस्था अपि च्यवन्ते मानवाः । श्येनो यथा वर्तकं हरति, एवमायुःक्षये त्रुट्यति (जीवितम् ) ॥४॥ + त्रिभुवनजनं म्रियमाणं, दृष्ट्वा नयन्ति ये नात्मानम् (धर्मे)। विरमन्ति न पापाद्, धिर धिगू धृष्टत्वं तेषाम् ॥ ७५ ॥
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(५२)
थकी विराम पामता नथी, एवा निर्लज्ज पुरुषोनी घिट्टाइने धिक्कारहो ! धिक्कार हो ! ॥ ७५ ॥
मा मा जंपह बहुयं, जे बद्धा चिक्कणेहि कम्मेहिं । ससि सि जाय, हिओवएसो महादोसो ॥ ७६ ॥
अयोग्य शिष्यो उपर कृपासागर गुरुमहाराजने करुणा आववाथी वारंवार उपदेश आपता जोइ, ते गुरु महाराज प्रति योग्य अने विनयी शिष्यो कहेछे- प्रभो ! कृपानिधान ! जेओए घणां चीकणां अने निकाचित कर्मों बांध्या छे- जेओ मगशेळीया पत्थरनी जेम नहीं पीगळे वा कठण हृदयवाळा छे, एवा आ अयोग्य प्राणीओने बहु उपदेश न आपो न आपो. कारण के-तेओने आप गमे तेटलो प्रतिबोध आपशो तो पण तेओ प्रतिबोध पामवाना नथी, एटलं ज नहीं पण, सर्पने जेम जेम दूध पाइये तेम तेम झेर वधेछे तेम अयोग्य प्राणीओने हितोपदेश केवळ महाद्वेषनी ज वृद्धि करे छे, माटे तेवा अयोग्य जीवोने उपदेश आपको व्यर्थ छे, ॥ ७६ ॥
*
मा मा जल्पत बहुकं, ये बद्धाचिणैः कर्मभिः । सर्वेषां तेषां जायते, हितोपदेशो महाद्वेषः ॥ ७६ ॥
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( ५३ )
कुणसि ममत्तं धण-सयण - विहवपमुहेसु अनंतदुक्खेसु सिढिलेसि आयरं पुण, अनंतसुक्खम्मि मुक्खम्मि ॥
हे जीव ! अनन्ता दुःखना हेतुभूत धन, स्त्री पुत्रादि स्वजन, अने वैभव विगेरेने विषे तुं ममत्वभाव राखे छे; ज्यारे अनन्तुं सुख जेमां छे एवा महादुर्लभ मोक्षने विषे आदर शिथिल करे छे !. एवो कोण मूर्ख होय के जे दुःख आपनारा पदार्थोमां आसक्ति राखे ?, अने सुख आपनारा पदार्थमा उपेक्षा राखे ?, पण आत्मन् ! तें तो तेमज कर्यु !. माटे हजु तारा अनादिकाळना भ्रमने दूर कर, अने सुखी थवा इच्छतो होय तो बाह्यभाव उपरना ममत्वने त्यागी मोक्षमां आदर राख - मोक्षने माटे प्रयत्न कर. ॥ ७७ ॥
संसारो दुहऊ, दुक्खफलो दुसहदुक्खरूवो य । न चयन्ति तंपि जीवा, अइबद्धा नेहनिअलेहिं ॥ ७८ ॥
* करोषि ममत्वं धन - खजन - विभवप्रमुखेषु अनन्तदुःखेषु । शिथिलयसि आदरं पुनरनन्तसौख्ये मोक्षे ॥ ७७ ॥
+ संसारो दुःखहेतुः, दुःखफलो दुःसहदुःखरूपश्च । न त्यजन्ति तमपि जीवा, अतिबद्धाः स्नेहनिगडैः ॥ ७८ ॥
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( ५४ )
आ संसार दुःखनुं कारण छे, दुःखरूपी फळने आपनारो छे, अने असह्य घोर दुःखस्वरूप छे, आवा महाभयङ्कर संसारनो पण, स्नेह रूपी बेडीथी अतिशय बंधायेला जीवो त्याग करता नथी ! जीवो संसारने दुःखमय जाणे छे, छतां रागबन्धनथी जकडायेला तेनो त्याग करी शकता नथी. माटे हे जीव ! रागबन्धनने दूर करवाने उद्यमवंत था, के जेथी आवा दुःखमय संसारथी तारो छूटकारो धाय. ॥ ७८ ॥
नियकम्मपवणचलिओ, जीवो संसारकाणणे घोरे । का का विडंबणाओ, न पावए दुसहदुक्खाओ १७९
पोताना कर्मरूपी पवनने पराधीन थइ पतित थयेलो आ जीव संसाररूपी महाविकट जंगलमां असह्य दुःखोथी भरपूर कइ कइ विडंबनाओ पामतो नथी ?, अर्थात् सर्व विडंबनाओ पामे छे. हे आत्मा ! तें कर्मने वश थइ असह्य दुःखो सहन कर्या, अने विविध प्रकारनी
* निजकर्मपवनचलितो, जीवः संसारकानने घोरे ।
काः का विडम्बना, न प्राप्नोति दुस्सहदुःखाः ॥ ७९ ॥
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(५५)
विडंबनाओ सही, तेना आगळ धर्मकृत्य करतां थतुं
घणुं ज अल्प दुःख शा हिसाबमां छे ?, के जेथी अनन्तुं अने अक्षय सुख मळे तेम छे. माटे धर्मसंचय करवामां प्रमादी न था. ॥ ७९ ॥
सिसिरम्मि सीयलानिललहरिसहस्सेहि भिन्नघणदेहो ।
तिरियत्तणम्मिऽरणे,
अनंतसो निहणमणुपत्तो ॥ ८० ॥ गिंम्हायवसंतत्तो- रण्णे छुहिओ पिवासिओ बहुसो । संपत्ती तिरियभवे, मरणदुहं बहु विसूरन्तो ॥ ८१ ॥ वासासुऽरण्णमज्झे, गिरिनिज्झरणोद्गेहि वज्जन्तो । सीयाऽनिलडज्जविओ, मओऽसि तिरियन्त्तणे बहुसो ॥ एवं तिरियभवेसु कीसन्तो दुक्खसयसहस्सेहिं । वसियो अनंतखुत्तो, जीवो भीसणभवारण्णे ॥ ८३ ॥
* शिशिरे शीतलाऽनिल - लहरिसह सैर्भिन्नघन देहः । तिर्यक्त्वेऽरण्ये, अनन्तशो निधनमनुप्राप्तः ॥ ८० ॥ + ग्रीष्मातपसन्तप्तो ऽरण्ये क्षुधितः पिपासितो बहुशः । संप्राप्तस्तिर्यग्भवे, मरणदुःखं बहु विद्यमानः ॥ ८१ ॥ वर्षांवरण्यमध्ये, गिरिनिर्झरणोदकैरुह्यमानः । शीताऽनिलदग्धो, मृतोऽसि तिर्यक्त्वे बहुशः ॥ ८२ ॥ एवं तिर्यग्भवेषु, क्लिश्यमानो दुःखशतसहस्रैः । उषितोऽनन्तकृत्वो, जीवो भीषणभवाऽरण्ये ॥ ८३ ॥
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(५६) हे जीव ! तुं तिर्यंच भवमा हतो, के जे वखते तार शरीर मजबूत हतुं तो पण अटवीमां शीयाळानी सख्त ठंडीमा हिम पडवाथी तारो देह फाटी गयो-भेदाइ गयो!, अने पोष महिनानी कडकडती टाढथी अटवीमां अनन्तीवार मरणने शरण थयो, ते दुःख संभार. ॥८॥ वळी रे आत्मा! तुं तिथंच भवमां घोर जंगलने विषे उनाळाना आकरा तापथी तप्त थइ-विह्वल बनी भूख्यो तरस्यो घणो ज खेद पामतो मरणदुःख पाम्यो !. ॥ ८१॥ वळी हे चेतन ! तुं वर्षा ऋतुमा तिर्यंचभवमा भयानक अरण्यने विष पर्वतोना धोधमार पाणीमां तणातो-अथडातो-बूडतो अने ठंडा पवनथी जकडाइ गयेलो घणी वखत मृत्यु पाम्यो.. ॥ ८२॥
आवी रीते अतिभयानक भवरूपी अरण्यमा तिर्यच भवोने विषे असह्य लाखो दुःखो भोगवी केश पामतो आ जीव अनन्ती वार वस्यो. शियाळामां जंगलने विषे असह्य ठंडीथी अनन्ती वार मृत्युने शरण थयो !, उनाळाना आकरा तापथी तप्त थइ भूख्यो तरस्यो मरी गयो', अने वरसाद ऋतुमां पाणीमां तणातो अथ
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(५७)
डातो प्राणरहित थयो !. आवां दुःखो अनन्तीवार सहन करवा छतां ते कष्टोने आज तुं केम विसरी जाय छे १. ॥ ८३ ॥
बैट्ठट्ठकम्मपलया - निलपेरिओ भीसणम्मि भवरण्णे । हिंडन्तो नरएस वि, अनंतसो जीव ! पत्तो सि ॥८४॥
हे आत्मन् ! प्रलयकाळना पवन जेवा भयंकर एवा आठ कर्मे करी घोर एवा आ भवरूपी अरण्यमां भटकतां भटकतां तुं नरकगतिमां पण असह्य दुःखो अनन्ती वार पाम्यो छे - दुःख भोगववामां कांइ खामी राखी नथी, तो पण हजु तेवां ज दुःखो भोगववां पडे dai पापमय कार्यों करे छे ! अरे ! कांइक समज, शुद्धि ठेकाणे लाव, अने हवे पछी तेवां दुःखो भोगववां न पडे तेने माटे प्रयत्नशील था. ॥ ८४ ॥
दुष्टाऽष्टकर्मप्रलया - निलप्रेरितो भीषणे भवारण्ये । हिण्डमानो नरकेष्वपि, अनन्तशो जीव ! प्राप्तोऽसि ॥ ८४ ॥
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(५८)
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सैंत्तसु नरयमहीसु, वज्जानलदाह-सीयवियणासु । बसियो अनंतखुत्तो, विलवन्तो करुणसद्देहिं ॥ ८५ ॥
हे जीव ! तुं साते नारकीओमां करुणा उपजावे एवा हृदयभेदक शब्दो वडे विलाप करतो अनन्तीवार वस्यो, के जे नारकीओमां वज्रसमान अतिशय आकरा अग्निनी अने शीतनी असह्य वेदनाओ तने भोगववी पडी !. हवे तेथी त्रास पामी फरीथी त्यां जवुं न पडे माटे धर्मकृत्यमां सावधान था. ॥ ८५ ॥
पियै - माय सयणरहिओ, दुरंतवाहिहिं पीडिओ बहुसो । मणुअभवे निस्सारे, विलाविओ किं न तं सरसि १ ॥
हे चेतन ! माता पिता अने सगां संबन्धीओथी वियोग पामेला तने असाध्य व्याधिओए घणोज पीडित करी आ असार एवा मनुष्यभवमां बहु बहु विलाप कराव्या, आ वातने तुं केम विसरी जाय छे ? ॥ ८६ ॥
* सप्तसु नरकमहीषु वज्राऽनलदाह - शीतवेदनासु । उषितोऽनन्तकृत्वो, विलपन् करुणशब्दैः ॥ ८५ ॥
+ माता - पितृ - खजनरहितो, दुरन्तव्याधिभिः पीडितो बहुशः । मनुजभवे निस्सारे, विलापितः किं न तं स्मरसि ? ॥ ८६ ॥
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( ५९ )
पवणु व गयणमग्गे, अलक्खिओ भमइ भववणे जीवो ठाणट्ठाणम्मि समु-ज्झिऊण धण-सयणसंघाए ॥८७॥
जेम पवन आकाशमां अदृश्य रूपे भिन्न भिन्न स्थाने भम्या करेछे, तेम आ जीव ठेकठेकाणे धन अने सगां वालाओनो त्याग करी अजाणपणाथी भटक्या करे छे. माटे हे आत्मन् ! 'आमारुं धन, आ मारा सगा - वहाला ' आ रीते खोटो ममत्वभाव त्यागी, तारा शुद्ध स्थिरस्वभावने प्राप्त करवा वीतरागप्रभुनो धर्म आचर ॥८७॥ विर्द्विजन्ता असयं, जम्म- जरा मरणतिक्खकुंतेहिं । दुहमणुभवन्ति घोरं, संसारे संसरन्त जिआ ॥८८॥ तहवि खर्णपि कयावि हु, अन्नाणभुयंगडंकिया जीवा । संसारचारगाओ, न य उद्दिज्जन्ति मूढमणा ॥ ८९ ॥
आ असार संसारमां भटकता जीवो जन्म जरा अने मरण रूपी तीक्ष्ण भालाओ वडे वारंवार विधाइ घोर
* पवन इव गगनमार्गे, अलक्षितो भ्रमति भववने जीवः । स्थानस्थाने समुज्झ्य धन खजनसंघातान् ॥ ८७ ॥
+ विध्यमाना असकृद्, जन्म-जरा-मरणतीक्ष्णकुन्तैः । दुःखमनुभवन्ति घोरं, संसारे संसरन्तो जीवाः ॥ ८८ ॥ तथापि क्षणमपि कदापि खलु, अज्ञानभुजङ्गदष्टा जीवाः । संसारचारकाद्, न चोद्विजन्ते मूढमनसः ॥ ८९ ॥
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( ६० )
दुःख अनुभवे छे, ॥ ८८ ॥ छतां अज्ञान रूपी सर्पवंडे डसायेला मूढमानवाळा जीवो आ संसार रूपी बंदीखानाथी क्षणमात्र पण उद्वेग पामता नथी !.
केदखानामां पडेलो प्राणी एकज वखत भालानी वेदना सहन करी शकतो नथी, अने कंटाळी ज विचारे छे के - अरेरे ! हवे हुं आ दुःखमांथी क्यारे छूटुं ?. पण जन्म जरा अने मृत्युरूपी भालाओना कारी घा जीवो वारंवार अनुभवे छे, छतां आश्चर्य छे केतेओ आ संसारूपी केदखानामांथी छूटवाने क्षणवार पण उद्विग्न थता नथी ! ॥ ८९ ॥
कीलसि कियंतवेलं, सरीरवावीइ ? जत्थ पइसमयं । काल रहट्टघडीहिं, सोसिज्जइ जीवियंभोहं ॥ ९० ॥
हे जीव ! तुं शरीररूपी वावमां केटलो समय क्रीडा करी शकीश ?, जे वावमांथी काळरूपी रेंटना घडाओ जीवितरूपी जलसमूहने समये समये शोषी रह्याछे ! - जेम जेम काळ जायछे तेम तेम आयुष्य घटतुं ज जाय
* क्रीडिष्यसि कियद्वेलां, शरीरवाप्यां ? यत्र प्रतिसमयम् । कालाsरघट्टघटीभिः, शोष्यते जीविताऽम्भओघः ॥ ९० ॥
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(६१)
छे. जेम फांसीनी सजा पामेलो अपराधी जेम जेम फांसी सन्मुख डगलां भरेछे तेम तेम तेने मृत्यु नजीक आवतुं जाय छे, अने तेथी तेने खान-पानादि काइ पण गोठतुं नथी, कारण के तेणे जाण्युं छे के मृत्यु नजीक आवतुं जायछे तेम हे चेतन! तारी पण जेम जेम उम्मर जायछे तेम तेम मृत्यु नजीक आवतुं जायचे, आवी रीते दिवस पर दिवस जतां आयुष्य झपाटामां पूर्ण थशे त्यारे मरणने शरण थ, पडशे!. माटे प्रमाद त्यागी परलोक साधवाने सावधान था, के जेथी मरणसमये पश्चात्ताप करवानो समय न आवे. ॥९॥ रे जीव ! बुज्झ मा मुज्झ मा पमायं करेसि रे पाव!। जंपरलोए गुरुदुक्खभायणं होहिसि अयाण ! ॥११॥ __ अरे जीव! बुझ बुझ, मोह न पाम. रे पापी! हवे धर्मकार्यमांप्रमाद न कर. हे अज्ञानी ! प्रमाद करीश तो परलोकमां घोर असह्य दुःखो तारे ज भोगवां पडशे. माटे दुर्लभ मनुष्यभवमा चिन्तामणि समान जिनधर्म
* रे जीव | बुध्यख मा मुह्य मा प्रमादं कुरु रे पाप! ।
यत् परलोके गुरुदुःखभाजनं भविष्यसि अज्ञान ! ॥ ९१॥
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(६२) पामी आवा धर्म करवाना अमूल्य समयमा सावधान था, के जेथी दुःख न भोगववां पडे. ॥११॥
बुज्झसुरे जीव! तुम,
मा मुज्झसि जिणमयम्मि नाऊणं । जम्हा पुणरवि एसा,
सामग्गी दुल्लहा जीव ॥१२॥ अरे जीव ! हवे तुं बोध पाम, जिनमतने विषे जीव अजीव विगेरे तत्त्वो जाण्या छतां मोह न पाम, कारण के हे चेतन ! मनुष्यभव तथा जिनेन्द्रमत विगेरे धर्मसामग्री फरी फरीने मळवी दुर्लभ छे, माटे आवेलो अवसर न जवा दे. ॥ ९२ ॥ . दुलहो पुण जिणधम्मो, तुमं पमायायरो सुहेसी य। दुसहंच नरय दुक्खं, कह होहिसि तं न याणामो ॥१३॥ हे प्राणी ! आ जिनधर्म फरीथी मळवो अतिदुर्लभ
* बुध्यख रे जीव ! त्वं, मा मुह्य जिनमते ज्ञात्वा।
यस्मात् पुनरपि एषा, सामग्री दुर्लभा जीव ! ॥ ९२ ॥ + दुर्लभः पुनर्जिनधर्मः, त्वं प्रमादाकरः सुखैषी च ।
दुस्सहं च नरकदुःखं, कथं भविष्यसि तन्न जानीमः ॥ ९३ ॥
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(६३) छ, अने तुं प्रमादनी खाण छे!. आवो चिन्तामणि समान जिनधर्म पामवा छतां तुं प्रमादमां दिवसो एळे गुमावे छे, अने प्रमाद करीने पण सुखनी अभिलाषा राखे छे!, ते सुख तने क्याथी मळशे ?. नारकीर्नु दुःख दुःसह छे-धर्मसामग्री मळवा छतां प्रमादी बनी धर्म तरफ उपेक्षा राखे छे, अने पापमय कार्योमा अमूल्य आयुष्य गुमावेछे, जेथी तने घोर असह्य नरकदुःखो भोगववां पडशे. हे प्राणी ! तुं अहीं सामान्य दुःख पण सहन करी शकतो नथी त्यारे नरकनां दुःसह दुःख केम सहन थशे ?, अमे नथी जाणता के तारी त्यां शी अवस्था थशे ! ॥९३॥
अंथिरेण थिरो समलेण, -- निम्मलो परवसेण साहीणो। देहेन जइ विढप्पड़,
धम्मो ता किं न पज्जत्तं? ॥ ९४ ॥ हे जीव ! अस्थिर अने अशाश्वता आ देह वडे
* अस्थिरेण स्थिरः समलेन, निर्मलः परवशेन खाधीनः ।
देहेन यद्ययंते, धर्मस्तदा किं न पर्याप्तम् ? ॥ ९४ ॥
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( ६४ )
स्थिर अने शाश्वतो जो धर्म उपार्जन थायछे तो मळ्युं ?, अर्थात् धारेलो लाभ मळ्यो कहेवाय. वळी मळ - मूत्रथी भरेला आ मलिन शरीर वडे निर्मळ धर्म उपार्जन थाय तो शुं बाकी रह्युं ? - शुं अपूर्णता रही ?अर्थात् महान् लाभ मळयो कहेवाय. वळी अनेक प्रकारमा रोग विगेरेने आधीन - परतन्त्र एवा आ देह वडे स्वाधीन - स्वतंत्र एवो धर्म जो उपार्जन थाय तो शुं कांइ मळवानी खामी रही कहेवाय ?, अर्थात् इच्छेलो लाभ मळ्यो ज कहेवाय. अस्थिर मलिन अने पराधीन एवा आ असार देह वडे स्थिर निर्मळ अने स्वाधीन वो जो धर्म उपार्जन थइ शके छे, तो हे आत्मन् ! आवेलो लाभ शा माटे चूके छे. माटे आ असार शरीर उपरथी मोह उतारी ते वडे धर्मनुं साधन करी ले, ॥९४॥
जैह चिंतामणिरयणं,
सुलहं न हु होइ तुच्छविहवाणं । गुणविहववज्जियाणं,
जियाण तह धम्मरयपि ॥ ९५ ॥
*
यथा चिन्तामणिरत्नं सुलभं न खलु भवति तुच्छविभवानाम् । गुणविभववर्जितानां जीवानां तथा धर्मरत्नमपि ॥ ९५ ॥
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(६५)
जेम तुच्छ वैभववाळा - पुण्यहीन प्राणीओने चिन्तामणि रत्न सुलभ न ज होय - पुण्यहीन प्राणीओ चिन्तामणि रत्न प्राप्त करी शकता ज नथी, तेम गुणरूपी वैभवे करीने रहित जीवोने धर्मरत्न पण सुलभ न ज होय - निर्गुणी प्राणीओ धर्मरत्न प्राप्त करी शकता नथी ॥
जह दिट्ठीसंजोगो, न होइ जच्चधयाण जीवाणं । तह जिणमयसंजोगो, न होइ मिच्छंघजीवाणं ॥९६॥
जेम जन्मधी अंध अवतरेला जीवोने दृष्टिनो संयोग नथी - कोइ पण पदार्थने देखता नथी, तेम मिथ्यात्वे करी अंध थयेला जीवोने जिनमतनो संयोग नथीवीतराग भाषित मतनी प्राप्ति थती नथी. ॥ ९६ ॥
पंच्चक्मणंतगुणे, जिणिंदधम्मे न दोसलेसोवि । तहवि हु अन्नाणंधा, न रमन्ति कयावि तम्मि जिया ॥
* यथा दृष्टिसंयोगो, न भवति जात्यन्धानां जीवानाम् । तथा जिनमतसंयोगो, न भवति मिथ्याऽन्धजीवानाम् ॥ ९६ ॥ + प्रत्यक्षमनन्तगुणे, जिनेन्द्रधर्मे न दोषलेशोऽपि ।
तथापि खत्वज्ञानान्धा, न रमन्ते कदापि तस्मिन् जीवाः ॥९७॥ वै०
भ०
०५
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मिच्छे अणंतदोसा, पयडादीसन्ति नविय गुणलेसो। तह वियतं चेव जिया, ही मोहंधा निसेवन्ति ॥९८॥ - श्रीजिनेन्द्रभाषित धर्मने विषे प्रत्यक्ष अनन्त गुणो छे, अने दोषनो लवलेश पण नथी. आवो गुणोनो भंडार अने निर्दोष जिनधर्म छे, तो पण अज्ञान वडे अंध थयेला प्राणीओ तेने विषे चित्त लगावता नथीजोडाता नथी!. ॥ ९७ ॥
मिथ्यात्वमां अनंत दोषो प्रगट पणे देखाय छसाक्षाद् अनुभवीए छीए, अने गुणनो लवलेश पण दृष्टिगोचर थतो नथी, तो पण अफसोस छे के-मोह वडे अंध थयेला प्राणीओ ते मिथ्यात्वने ज सेवेछे !. ॥९॥ घिद्धी ताण नराणं, विन्नाणे तह कलासु कुसलत्तं । सुहसच्चधम्मरयणे, सुपरिक्खं जे न जाणन्ति ॥ ९९ ॥
परलोकमां कल्याणकारी अने सुख आपनार एवा सत्य धर्मरत्ननी जेओ सारी रीते परीक्षा करी जाणता
* मिथ्यात्वेऽनन्तदोषाः, प्रकटा दृश्यन्ते नाऽपि च गुणलेशः ।
तथापि च तदेव जीवा, ही ! मोहान्धा निषेवन्ते ।। ९८॥ + धिग् धिक् तेषां नराणां, विज्ञाने तथा कलासु कुशललम् । शुभ-सत्यधर्मरत्ने, सुपरीक्षां ये न जानन्ति ॥ ९९ ॥
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( ६७ )
नथी ते पुरुषोना विज्ञानकौशल्यने धिक्कार हो !, तथा ते पुरुषोना कळा कौशल्यने धिक्कार हो ! अर्थात् जेओ 'आ धर्म साचो छे, अने आ धर्म असत्य छे' ए प्रमाणे सत्यासत्यधर्मनी परीक्षा करी जाणता नथी तेओनुं ज्ञान डहापण चतुराइ तथा कलाकौशल्य नकार्मु छे, माटे दरेक मनुष्ये प्रथम धर्मनी परीक्षा करता शीखकुं जोइए. ॥ ९९ ॥ र्जिंणधम्मोऽयं जीवाणं, अपुत्रो कप्पपायवो । सग्गापवग्गसुक्खाणं, फलाणं दायगो इमो ॥ १०० ॥
आ जिनधर्म जीवोने अपूर्व कल्पवृक्ष छे, कारण केकल्पवृक्ष तो आ लोकना ज सुखने आपे छे, पण आ जिनधर्मरूपी कल्पवृक्ष तो स्वर्ग अने मोक्षना सुखरूप
फळोने आपेछे. ॥ १०० ॥
धम्मो बंधु सुमित्तोय, धम्मो य परमो गुरू । मुक्खमग्गे पयट्टाणं, धम्मो परमसंदणो ॥ १०१ ॥
* जिनधर्मोऽयं जीवानाम्, अपूर्वः कल्पपादपः । स्वर्गा-पवर्गसौख्यानां, फलानां दायकोऽयम् ॥ १०० ॥
+ धर्मो वन्धुः सुमित्रं च धर्मश्च परमो गुरुः । मोक्षमार्गे प्रवृत्तानां धर्मः परमस्यन्दनः ॥ १०१ ॥
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( ६८ )
आ जगत्मां धर्म बन्धुसमान छे-जेम आपत्ति समये भाइ सहायता करेछे, तेम आपत्तिमां आवी पडेला प्राणीने धर्म सहायता करेछे. वळी धर्म हितकर मित्र समान छे - जेम साचो मित्र सद्बुद्धि आपी सन्मार्गे दोरेछे, तेम धर्म प्राणीने सन्मार्गे दोरेछे. वळी धर्म सद्गुरु समान छे-जेम सद्गुरु उपदेश आपी प्राणीने दुर्गतिमांथी बचावे छे, तेम धर्म पण प्राणीने दुर्गतिमांधी बचावेछे. वळी धर्म मोक्षमार्गमा प्रवर्तेला प्राणीओने माटे श्रेष्ठ रथ समान छेजेम उत्तम रथ होय तो मार्गमां सुखेथी गमन थइ शके छे, तेम आ धर्मरूपी रथ मोक्षमार्गने विषे प्रवर्तेला प्राणीओने मोक्षमां सुखशान्तिथी पहोंचाडे छे, ॥१०२॥
उगइतहानल - पलित्तभवकाणणे महाभीमे । सेवसु रे जीव ! तुमं, जिणवयणं अमियकुंडसमं ॥ १०२ ॥
चार गतिमा रहेला अनन्त दुःखरूपी अग्नि वडे आ संसाररूपी महाभयंकर अरण्य सळगी उठ्युं छे.
* चतुर्गत्यनन्तदुःखाऽनल - प्रदीप्तभवकानने महाभीमे । सेवख रे जीव ! त्वं, जिनवचनममृतकुण्डसमम् ॥ १०२ ॥
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आवा दुःखरूपी अग्निथी सळगी उठेला संसाररूपी अरण्यमांथी बचq होय तो हे जीव! तुं अमृतकुंड समान जिनधर्मनुं सेवन कर. ॥ १०२ ॥ विसमे भवमरुदेसे, अणंतदुहगिम्हतावसंतत्ते । जिणधम्मकप्परक्खं, सरसु तुमं जीव ! सिवसुहदं ॥
हे जीव! अनंतदुःखरूपी ग्रीष्म ऋतुना तीव्र तापवडे तपी रहेला आ संसाररूपी विषम मारवाड देशमां, मोक्षसुखने आपनार जिनधर्मरूपी कल्पवृक्षनो तु आश्रय कर-जिन धर्मरूपी कल्पवृक्षने छांयडे जा, के जेथी तने शान्ति मळे. ॥१०॥ किं बहुणा ? जिणधम्मे, जइयवं जह भवोदहिं घोरं । लहु तरियमणंतसुहं, लहइ जिओ सासयं ठाणं १०४ वधारे शें कहीये १, हे भव्यप्राणीओ ! उपदेशनो
* विषमे भवमरुदेशे, अनन्तदुःखग्रीष्मतापसंतप्ते ।
जिनधर्मकल्पवृक्षं, सर त्वं जीव ! शिवसुखदम् ।। १०३ ॥ + किं बहुना ? जिनधर्मे, यतितव्यं यथा भवोदधिं घोरम् । लघु तीर्वाऽनन्तसुखं, लभते जीवः शाश्वतं स्थानम् ॥ १०४॥
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(७०) सार एज छ के-जिनधर्मने विषे ते प्रकारे प्रयत्न करवो जोइए के जेथी भयंकर एवा आ भवरूपी समुद्रने जलदी तरी जीव अनन्तसुखवाळु शाश्वत मोक्षस्थान मेळवे. ॥१०४॥
ANMENo-मान्यतापमानाTEX
1 भववैराग्यशतकं समासम् ॥
420102tAtABAJARASRAJBRAPATRAMBABA
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सरल संस्कृतग्रन्थो
"
रु. आ. पै. गद्यबद्ध-श्रीधन्यचरित्र ...
१०-०-० श्रीयशोधरचरित्र
१-४-० , मलयसुन्दरीकथा
०-१०-० युगादिदेशना
१-०-० अघटकुमारचरित्र....
०-७-० मृगाङ्कचरित्र
०-४-० धनञ्जयकोश भाषान्तरसह
०-४-० बृहत्संग्रहणी ( मूल) ....
-०-४-० अनित्यादिभावनास्वरूप ....
०-२-६ नवस्मरण (पॉकेटसाइझ) तत्वार्थादि परिशिष्ट साथे ०-४-०
लखो-मु० पालीताणा. १ सलोत अमृतलाल अमरचन्द. २ शा. मानचन्द वेलचन्द, ठे. गोपीपुरा
मु० सुरत.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आवश्यक सूचना. - अमारे त्यां जैनविविधसाहित्यशास्त्रमाला बनारस, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा, आत्मानन्द जैन सभा, रा. पुरुषोत्तमदास गीगाभाइ, बी. बी. एन्ड कम्पनी, तथा ए. एम. कम्पनी तरफथी प्रसिद्ध थयेला ग्रन्थो मळेछे.. लखोसलोत अमृतलाल अमरचन्द, काठियावाड पालीताणा. For Private And Personal Use Only