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(२७)
जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥ ४१ ॥
जेने मृत्युनी साथे भाइबन्धी होय ते कदाच एम विचारे के - मृत्युने समजावीने पण थोडो वखत रोकी राखीश, अने धर्मसाधन करी लइश. परन्तु हे जीव ! मृत्यु तो तारो कट्टर दुश्मन छे, तो पछी 'काले धर्मसाधन करीश' ए प्रमाणे शा माटे 'काल' नो भरोसो राखी प्रमादमां दिवसो गुमावे छे ?, 'काल' कोणे दीठी छे ?, आवती काल सुधी जीवीश तेनी शी खात्री ?; माटे आजे ज धर्म करवाने उद्यत था । वळी जेने मृत्यु थकी न्हासी जवानुं सामर्थ्य होय ते कदाच विचारे के पर्वत गुफामां अथवा एवा कोइ निर्भय स्थानमां पलायन करी जइश, अने काळना सपाटामाथी छटकी जश !, पण हे आत्मा ! तारी एवी शक्ति नथी के तुं मृत्युथी बची जाय. क्रूर काळ ओचिंतो छापो मारशे त्यारे शुं करीश १, माटे भविष्य उपर आधार राख नहीं, अने जे धर्मसाधन करवानुं छे ते आजे ज करी ले. वळी जे जाणतो होय के मारे मरवानुं नथी, ते कदाच एवी
* यो जानाति न मरिष्यामि, स खलु काक्षेत श्वः स्यात् ॥ ४१ ॥
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