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(२६) अग्निथी बळवा मांड्युं छे छतां तेमा हुं केम सूइ रह्यो छु?, अने तेमां बळता आत्मानी शा माटे उपेक्षा करूंछु?" । आ प्रमाणे विचारी श्रीवीतराग धर्मर्नु आचरण करी दिवसो सफळ कर, अने प्रमाद त्यागी आत्मसाधन करी ले.॥३९॥ जाँ जा वच्चइ रयणी, न य सा पडिनियत्तइ । अहम्मं कुणमाणस्स, अहला जन्ति राइओ ॥ ४० ॥
जे जे रात्रि-दिवस जायछे ते पाछा आवता नथी. धर्मने नहीं करनार प्राणीना रात्रि-दिवसो निष्फळ जाय छे. जेटलो समय धर्मकरणीमां जाय छे तेटलो ज सफळ थाय छे, माटे हे जीव ! धर्मकरणी विनाना तारा दिवसो पशुनी जेम निष्फळ जाय छे तेनो विचार कर, अने जाग्या त्यांथी सवार गणी धर्मकरणीमां दत्तचित्त था, के जेथी दुर्लभ मनुष्यभव सार्थक थाय. ॥ ४० ॥ जस्सऽथि मच्चुणा सक्खं, जस्स अस्थि पलायणं ।
* या या ब्रजति रजनी, न च सा प्रतिनिवर्तते ।
अधर्म कुर्वतोऽफला यान्ति रात्रयः॥ ४०॥ + यस्याऽस्ति मृत्युना सख्यं, यस्याऽस्ति पलायनम् ।
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