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(३०)
जलदी जती रहेछे। अने स्त्री- पुत्रादि उपरनो प्रेम स्वप्न समान छे, एटले के क्षणमात्रमां नाश पामे छे. हे जीव ! आ प्रमाणे जो तुं खरा अन्तःकरणथी जाणतो होय तो जाण्या प्रमाणे वर्तन कर-जे कांइ धर्मकरणी करवी घटे ते कर, अने श्रीजिनेन्द्रना धर्मने साचो जाणी तेने विषे उद्यम कर ॥ ४४ ॥
संझराग- जलबुब्बुओवमे, जीविए य जलबिंदुचंचले । जुवणे य नइवेगसन्निभे, पावजीव ! किमियं न वुझसे ? ॥ ४५ ॥
सन्ध्या समयना रंग, जलना परपोटा, अने डाभ उपर रहेला जलना बिन्दु समान आ जीन्दगी चंचल छे- सन्ध्या समयना लाल पीळा लीला विगेरे रंगो घडी बेघडीमां नाश पामे छे, पाणीना परपोटा थोडा ज वखतमां हता नहोता थइ जाय छे, अने डाभना अग्र
* सन्ध्याराग जलबुद्बुदोपने, जीविते च जलबिन्दुचञ्चले । यौवने च नदीवेगसन्निभे, पापजीव । किमिदं न बुध्यसे ? ॥ ४५ ॥
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