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नमोऽर्हन्यः ॥ ॥अथ सार्थ भववैराग्यशतकम् ॥
संसारम्मि असारे, नत्थि सुहं वाहि-वेअणापउरे । जाणंतो इह जीवो, न कुणइ जिणदेसि धम्मं॥१॥ __ अनेक प्रकारनी व्याधिओ अने वेदनाओथी भरपूर एवा आ असार संसारमा आ जीवने कोइ पण गतिमा क्षण मात्र पण सुख नथी. आवी रीते आत्मा संसारने असार जाणे छे छतां पण बहुलकर्मी होवाथी वीतराग भगवंते उपदेशेलो दयामूल धर्म करतो नथी, अने संसारनो लोलुपी-लालचु थइ धर्मरत्न गुमावे छे. ॥१॥ अजं कल्लं परं परारिं, पुरिसा चिंतन्ति अत्थसंपत्तिं । अंजलिगयं व तोयं, गलतमा न पिच्छन्ति ॥२॥
* संसारेऽसारे नास्ति सुखं व्याधि-वेदनाप्रचुरे । जाननिह जीवो न करोति जिनदेशितं धर्मम् ॥ १॥ + अद्य कल्ये परस्मिन् परतरस्मिन् पुरुषाश्चिन्तयन्त्यर्थसम्पत्तिम् । अञलिगत मिव तोयं गलदायुर्न पश्यन्ति ॥ २॥
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