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(२२) जम्मदुक्खं जरादुक्खं, रोगा य मरणाणि य । अहो! दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जंतुणो॥३३॥
हे जीव ! आ जगत्मा जन्मनु दुःख, घडपणर्नु दुःख, अनेक प्रकारनां रोगोनां दुःख, तथा अनेक प्रकारनां मरणनां दुःख छे. अरे! आ संसार खरेखर दुःखमय छे, जेनी अंदर प्राणीओ अनेक प्रकारना क्लेशो भोगवी रह्या छे. आवा जन्म-मरणादि अनेक प्रकारनां दुःखो अनुभवता छतां तेमां आसक्त थइ रह्या छे ए महा आश्चर्य छे! ॥३३॥ जाव न इंदियहाणी, जाव न जररक्खसी परिप्फुरई। जाव न रोगविआरा, जाव न मच्चू समुल्लिअई॥३४॥
हे जीव ! ज्यां सुधी इन्द्रियो क्षीण थइ नथी, ज्यां सुधी जरा रूपी राक्षसी व्यापी नथी, ज्यां सुधी रोगविकारो प्रगट थया नथी, अने ज्यां सुधी काळना पा
* जन्मदुःखं जरादुःखं, रोगाश्च मरणानि च ।
अहो ! दुःखो हि संसारो, यत्र क्लिश्यन्ते जन्तवः ॥ ३३ ॥ + यावद् नेन्द्रियहानिर्यावन्न जराराक्षसी परिस्फुरति । यावद् न रोगविकारा, यावद् न मृत्युः समुच्छ्ष्यिति ॥ ३४ ॥
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