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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४५) तृषाने छीपववाने सघळा समुद्रनुं जल पण समर्थ न थाय. अहो ! तुं पराधीन हतो त्यारे तने केवी तीनतृषाने सहन करवी पडी ?, ज्यारे अहीं स्वतंत्रपणे धर्मनिमित्ते-तारा पोताना हितने माटे चोविहारो उपवास छठ के अठम, अथवा छेवटे रात्रिनो ज चोविहार करवानो गुरुमहाराज उपदेश आपछे त्यारे तने विचार थाय छे ! ॥६५॥ वळी नरकभवने विषे अनन्तीवार एवी तीन क्षुधानी वेदनाओ भोगववी पडी, के जे क्षुधाने शान्त करवाने जगत्ना सर्व पुद्गलो पण समर्थ न थाय, आवी सांभळतां कंपारी छूटे एवी अवर्णनीय क्षुधानी वेदनाओ ते परवशपणे अनन्तीवार अनुभवी, ज्यारे अहीं स्वाधीनपणामां धर्मनिमित्ते-आत्माना कल्याणने माटे उपवास अथवा एकास' करवाने पण लांबो विचार करवो पडे छे!. आत्मन् ! नरकने विषे आवी आवी असह्य तृषा अने क्षुधानी वेदनाओ पराधीनपणे तारे सहन करवी पडी, के जे सहन करवा छतां तारी सिद्धि थइ नहीं. पण अत्यारे तुं मनुष्यभव पाम्यो छे, सारासारनो विचार करी शके छे; तो हवे पण रसनेन्द्रियने वश थइ, आवेला अवसरने चूके तो For Private And Personal Use Only
SR No.020692
Book TitleSartham Bhavvairagya Shatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA M and Company
PublisherA M and Company
Publication Year1918
Total Pages75
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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