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(१५)
अणवत्था संसारे, कम्मवसा सङ्घजीवाणं ॥ २२ ॥
आ संसारमा कर्मवशथी जीवोनी अव्यवस्था छे, एटले एक प्रकारनी स्थिति रहेती नथी. कारण के-जे आ भवमां माता होय छे ते भवान्तरमां स्त्री पण थाय छे, वळी जे स्त्री होय छे ते भवान्तरमां मातारूपे थाय छे. पिता होय ते भवान्तरमां पुत्ररूपे उत्पन्न थाय छे, अने पुत्र होय छे ते भवान्तरमां पितारूपे थाय छे, आ प्रमाणे संसारनुं अनियमितपणुं छे. सर्व जीवो कर्मने वश थइ भिन्न भिन्न रूपे अवतार ले छे, अने मोहान्ध थइ मारुं मारुं करे छे; पण समजता नथी के एकज जातनी स्थिति रहेवानी नथी. माटे हे जीव ! तारी चल स्थितिनो विचार कर, अने संसारनी जूठी माया अने ममत्व त्यागी धर्मध्यान चूक नहीं ॥ २२ ॥
न सा जाई न सा जोणी, न तं ठाणं न तं कुलं । न जाया न मुआ जत्थ, सवे जीवा अणंतसो ॥ २३ ॥
* अनवस्था संसारे कर्मवशात् सर्वजीवानाम् ॥ २२ ॥
+ न सा जातिर्न सा योनिनं तत्स्थानं न तत् कुलम् | न जाता न मृता यत्र सर्वे जीवा अनन्तशः ॥ २३ ॥
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