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( ३२ )
करवावाळा पुरुषो जेम बळी - बाकळा भिन्न भिन्न जग्याए फेंके छे, तेम यमदेव देखतां देखता सर्व कुटुंबने भिन्न भिन्न गतिमां नाखी दे छे. माटे हे जीव ! तेओ उपर खोटो ममत्वभाव त्यागी आत्मसाधन करवाने उद्यमवंत था ॥ ४६ ॥
जीवेण भवे भवे, मिल्लियाइ देहाइ जाइ संसारे । ताणं न सागरेहिं, कीरइ संखा अनंतेहिं ॥ ४७ ॥
आ जीवे संसारमां भवोभवने विषे जेटला देह कर्या तेनी जो गणत्री करवा बेसीए तो अनन्ता सागरोपम जेटलो काळ चाल्यो जाय तो पण गणत्री करी शकीए नहीं ! अर्थात् आ जीवे भवोभवमां भटकी भटकी अनन्ता देह करीने मूकी दीधा छे. तो पछी हे आत्मा ! आवा क्षणभंगुर अने अशुचिथी भरेला शरीर उपर शा माटे मूर्छा राखे छे ?, हवे तो आवा विनाशी शरीर उपरथी मूर्छा उतारी अशरीरी थवाने प्रयत्नशील था. ॥४७॥
* जीवेन भवे भवे, मेलितानि देहानि यानि संसारे । तेषां न सागरैः क्रियते सयानन्तैः ॥ ४७ ॥
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