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(६२) पामी आवा धर्म करवाना अमूल्य समयमा सावधान था, के जेथी दुःख न भोगववां पडे. ॥११॥
बुज्झसुरे जीव! तुम,
मा मुज्झसि जिणमयम्मि नाऊणं । जम्हा पुणरवि एसा,
सामग्गी दुल्लहा जीव ॥१२॥ अरे जीव ! हवे तुं बोध पाम, जिनमतने विषे जीव अजीव विगेरे तत्त्वो जाण्या छतां मोह न पाम, कारण के हे चेतन ! मनुष्यभव तथा जिनेन्द्रमत विगेरे धर्मसामग्री फरी फरीने मळवी दुर्लभ छे, माटे आवेलो अवसर न जवा दे. ॥ ९२ ॥ . दुलहो पुण जिणधम्मो, तुमं पमायायरो सुहेसी य। दुसहंच नरय दुक्खं, कह होहिसि तं न याणामो ॥१३॥ हे प्राणी ! आ जिनधर्म फरीथी मळवो अतिदुर्लभ
* बुध्यख रे जीव ! त्वं, मा मुह्य जिनमते ज्ञात्वा।
यस्मात् पुनरपि एषा, सामग्री दुर्लभा जीव ! ॥ ९२ ॥ + दुर्लभः पुनर्जिनधर्मः, त्वं प्रमादाकरः सुखैषी च ।
दुस्सहं च नरकदुःखं, कथं भविष्यसि तन्न जानीमः ॥ ९३ ॥
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