Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३५) पत्ते वि तम्मि रे जीव !, कुणसि पमायं तुमं तयं चेव । जेणं भवंधकूवे, पुणो वि पडिओ दुहं लहसि ॥ ५२ ॥ हे जीव ! तुं अनेकप्रकारनी अकामनिर्जराए करीने, तथा निगोदनी भवस्थिति पूरी करीने महाकष्टे भाग्ययोगे अतिदुर्लभ एवो मनुष्य भव पाम्यो; अने तेमां पण चिन्तामणिरत्न समान मनोवांछित सुख आपनार श्रीजिनेन्द्रधर्म पाम्यो आवो चिन्तामणि तुल्य धर्म प्राप्त करीने पण जो तुं प्रमाद करेछे तो फरीथी भवरूपी अन्धकूवामां पडी जन्म-मरणादि घोर दुःख पामीश- फरीथी मनुष्य भव, अने तेमां पण जिनधर्मनी प्राप्ति अतिदुर्लभ छे. माटे हे आत्मा ! निद्रा विकथादि प्रमाद त्यागी धर्मकरणीमां उद्यमशील था. ॥ ५१-५२ ॥ वलद्धो जिणधम्मो, न य अणुचिण्णो पमायदोसेणं । हा जीव ! अप्पवेरिअ !, सुबहु परओ विरिहिसि ५३ * प्राप्तेऽपि तस्मिन् रे जीव !, करोषि प्रमादं त्वं तमेव । येन भवान्धकूपे, पुनरपि पतितो दुःखं लप्स्यसे ॥ ५२ ॥ + उपलब्धो जिनधर्मो, न चाऽनुचीर्णः प्रमाददोषेण । हा जीव ! आत्मवैरिक ! सुबहु परतः खेत्स्यसे ॥ ५३ ॥ For Private And Personal Use Only

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