Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company
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( ५३ )
कुणसि ममत्तं धण-सयण - विहवपमुहेसु अनंतदुक्खेसु सिढिलेसि आयरं पुण, अनंतसुक्खम्मि मुक्खम्मि ॥
हे जीव ! अनन्ता दुःखना हेतुभूत धन, स्त्री पुत्रादि स्वजन, अने वैभव विगेरेने विषे तुं ममत्वभाव राखे छे; ज्यारे अनन्तुं सुख जेमां छे एवा महादुर्लभ मोक्षने विषे आदर शिथिल करे छे !. एवो कोण मूर्ख होय के जे दुःख आपनारा पदार्थोमां आसक्ति राखे ?, अने सुख आपनारा पदार्थमा उपेक्षा राखे ?, पण आत्मन् ! तें तो तेमज कर्यु !. माटे हजु तारा अनादिकाळना भ्रमने दूर कर, अने सुखी थवा इच्छतो होय तो बाह्यभाव उपरना ममत्वने त्यागी मोक्षमां आदर राख - मोक्षने माटे प्रयत्न कर. ॥ ७७ ॥
संसारो दुहऊ, दुक्खफलो दुसहदुक्खरूवो य । न चयन्ति तंपि जीवा, अइबद्धा नेहनिअलेहिं ॥ ७८ ॥
* करोषि ममत्वं धन - खजन - विभवप्रमुखेषु अनन्तदुःखेषु । शिथिलयसि आदरं पुनरनन्तसौख्ये मोक्षे ॥ ७७ ॥
+ संसारो दुःखहेतुः, दुःखफलो दुःसहदुःखरूपश्च । न त्यजन्ति तमपि जीवा, अतिबद्धाः स्नेहनिगडैः ॥ ७८ ॥
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