Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company

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Page 51
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४८ ) रे जीव ! निसुणि चंचल सहाव, मिल्लेवि णु सयलवि बज्झभाव । नवभेयपरिग्गहविविहजाल, संसारि अस्थि सहु इंदयाल ॥ ७० ॥ अरे जीव ! हितकर वाक्य सांभळ-आ सर्व धन्य धान्यादि नवप्रकारना परिग्रहनो समूह छे ते तारा आत्मगुणथी बाह्यभाव छे, तारा पोताना गुण तो ज्ञान दर्शन अने चारित्र छे. वळी आ नव प्रकारनो परिग्रह चंचळस्वभावी छे - क्षणविनाशी छे, संसारमां सर्व इन्द्रजाल समान छे - परमार्थे जोतां असार छे. वळी परिग्रह छोडीने तारे अवश्य परलोकमां जवुं ज पडशे, तो पछी अत्यारथी ज आ सर्व चंचळस्वभावी बाह्यभाव उपरथी मोह त्यागी अचलस्वभावी तारा आत्मधर्मनो शा माटे आदर नथी करतो . ॥ ७० ॥ पियं पुत्त-मित्त घर-घरणि-जाय, इहलोइय सङ्घ नियसुहसहाय । * रे जीव ! निशृणु चञ्चलखभावान्, मुक्त्वापि सकलानपि बाह्यभावान् । नवभेदपरिग्रहविविधजालान्, संसारेऽस्ति सर्वमिन्द्रजालम् ॥ ७० ॥ + पितृ - पुत्र - मित्र - गृह गृहिणीजातम्, ऐहलौकिकं सर्वं निजसुखसहायम् । -- For Private And Personal Use Only

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