Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company
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( ३९ )
वैसियं गिरीसु वसियं, दरीसु वसियं समुद्दमज्झमि । रुक्खग्गे यवसियं, संसारं संसरणं ॥ ५७ ॥
हे आत्मन् ! संसारमां परिभ्रमण करतां तें केटलीएक वार पर्ततोमां निवास कर्यो, केटलीएक वार तुं गुफाओमां सिंहादिक रूपे वस्यो, केटलीएक वार वृक्षोना अग्रभागमां पक्षीरूपे निवास कर्यो, आवी रीते तने अनेक स्थळे भिन्न भिन्न स्वरूपे निवास करवो पड्यो !. तारे निवास करवाने कोइ पण एक स्थान नथी, तो पछी 'मारुं मारूं' करी शा माटे मिथ्याभिमान करेछे ?. आयुष्य पूरुं थतां कर्मने अनुसारे तारे निवास स्थान बदलवुं ज पडशे, माटे ममत्वभाव त्यागी समभावमां लीन था, के जेथी अक्षय अने नहीं बदलवुं पडे तेवुं स्थान मळे. ॥ ५७ ॥
देवो नेरइओत्ति य, कीड पयंगुत्ति माणुसो एसो ।
* उषितं गिरिषूषितं, दरीषूषितं समुद्रमध्ये ।
वृक्षाग्रेषु चोषितं, संसारं संसरता ॥ ५७ ॥
+ देवो नैरयिक इति च, कीटः पतङ्ग इति मानुष एषः ।
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