Book Title: Sartham Bhavvairagya Shatakam
Author(s): A M and Company
Publisher: A M and Company

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) अन्नुन्नपि न याणह, जीव! कुटुंबं कओ तुज्झ ? ॥३१॥ ___ आत्मन् ! जेना उपर तारो घणो मोह छे–घणी प्रीति छे ते मात पीता पत्नी पुत्र विगेरे कुटुम्ब क्याथी आव्यु ?, अने क्यां गयुं ?. तुं पण कइ गतिमांथी आव्यो ?, अने क्यां जइश ?. आ प्रमाणे कुटुम्बनी तने अने तारी कुटुम्बने खबर पण नथी तो पछी तारु ए कुटुंब क्यांथी ?, अने तुं कुटुम्बनो क्याथी ?, के जेथी तुं 'माझं कुटुम्ब माझं कुटुम्ब' करतो भटके छ ? ॥३॥ खंणभंगुरे सरीरे, मणुअभवे अब्भपडलसारिच्छे। सारं इत्तियमेत्तं, जं कीरइ सोहणो धम्मो ॥ ३२ ॥ ___ आ क्षणभंगुर शरीरमां, अने वादळांना गोटानी जेम जलदी विनाश पामता आ मनुष्यभवमां सार मात्र एटलो ज छ के-सुन्दर अने दोषरहित वीतराग धर्मर्नु सेवन करीए. माटे हे जीव ! वीतरागधर्मनुं सेवन कर, ते विना बीजो कांइ आ संसारमा सार नथी ॥ ३२॥ * अन्योन्यमपि न जानीथो, जीव ! कुटुम्बं कुतस्तव ? ॥ ३१ ॥ + क्षणभङ्गुरे शरीरे, मनुजभवेऽभ्रपटलसदृक्षे । सारमेतावन्मात्रं, यक्रियते शोभनो धर्मः ॥३२॥ For Private And Personal Use Only

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