________________
अलग होने के लिए (उवडिओमि) उपस्थित हुआ हूँ। चतुर्थ महाव्रत की प्रतिज्ञा
अहावरे चउत्थे भंते! महव्वर मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! मेहुणं पच्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणिअं वा नेव सयं मेहुणं सेविज्जा, नेवन्नेहिं मेहुणं सेवाविज्जा, मेहुणं सेवंते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि अन्नं न समणुजाणामि तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि 'गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि. चउत्थे भंते! महव्वर
उवढिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं ||४|| (सू.६) सं.छा.: अथापरे चतुर्थे भदन्त! महाव्रते मैथुनाद् विरमणं सर्वं भदन्त! मैथुनं
प्रत्याख्याम्यथ दिव्यं (दैवं) वा मानुषं वा तिर्यग्योनिकं वा नैव स्वयं मैथुन सेवे, नैवाऽन्यैः मैथुन सेवयामि मैथुन सेवमानानप्यन्यान्न समनुजानामि. यावज्जीवं त्रिविधं त्रिविधेन मनसा वाचा कायेन न करोमि न कारयामि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामि तस्य भदन्त! प्रतिक्रामामि निन्दामि गर्हाम्यात्मानं व्युत्सृजामि, चतुर्थे भदन्त!
महाव्रते उपस्थितोऽस्मि सर्वतो मैथुनाद्विरमणम् ।।४।। (सू.६) शब्दार्थ - (अह) इसके बादं (भंते) हे प्रभो! (अवरे) आगे के (चउत्थे) चौथे (महव्वए) महाव्रत में (मेहणाओ) मैथुन सेवन से (वेरमणं) अलग होना जिनेश्वरों ने कहा है, अतएव (भंते) हे कृपानिधे! गुरु! (सव्वं) सभी प्रकार के (मेहुणं.) मैथुन सेवन का (पच्चक्खामि) मैं प्रत्याख्यान करता हूँ, (से) वह (दिव्वं वा') देव संबन्धी (माणुसं वा) मनुष्य संबन्धी (तिरिक्खजोणियं वा) तिर्यंच योनि संबंधी (मेहुणं) मैथुन (सयं) खुदं (सेविज्जा) सेवन करे (नेव) नहीं, (अन्नेहिं) दूसरों के पास (मेहुणं) मैथुन (सेवाविज्जा) सेवन करावे (नेव) नहीं, (मेहुणं) मैथुन (सेवंते) सेवन करते हुए (अन्ने वि) दूसरों को भी (न समणुजाणेज्जा) अच्छा समझे नहीं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा इसलिए (जावज्जीवाए) जीवन पर्यन्त (तिविहं) कृत, कारित, अनुमोदित रूप मैथुन सेवन को (मणेणं) मन (वायाए) वचन (काएणं) काया रूप (तिविहेण) तीन योग से (न करेमि) नहीं करता हूँ (न कारवेमि) नहीं कराऊ (करंत) करते हुए (अन्नं पि) दूसरों को भी (न समणुजाणामि) अच्छा नहीं समझू (भंते) हे ज्ञानसिन्धो! (तस्स) भूतकाल में किये गये मैथुन सेवन की (पडिक्कमामि) प्रतिक्रमण रूप आलोयणा करता हूँ (निंदामि) आत्म-साक्षी से निंदा करता हूँ (गरिहामि) गुरु-साक्षी से गर्दा करता हूँ, १ 'वा' शब्द से देव, मनुष्य और तिर्यंचों के अवान्तर भेदों को भी स्वयं ग्रहण कर लेना चाहिए।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 29