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से गामे वा नगरे वा, गोअरग्गगओ मुणी।
चरे मंदमणुबिग्गो, अव्वक्खितेण चेअसा ||२|| सं.छा.ः स ग्रामे वा नगरे वा, गोचराग्रगतो मुनिः।
. चरेन्मन्दमनुद्विग्नः, अव्याक्षिप्तेन चेतसा ।।२।। भावार्थ : ग्राम या नगर में भिक्षाचर्या हेतु मुनि को धीरे-धीरे अव्यग्रतापूर्वक एवं अव्याक्षिप्त चित्तपूर्वक चलना चाहिए ।।२।।
पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे।
वज्जंतो बीअहरियाई, पाणे अ दगमहि।।३।। सं.छा.: पुरतो युगमात्रया, प्रेक्षमाणो महीं चरेत्।
वर्जयन् बीजहरितानि, प्राणिन उदकं मृत्तिकां च।।३।। भावार्थ : बीज, हरित्काय,जल, एवं सचित्तं मिट्टी आदि जीवों को बचाते हुए साढ़े तीन हाथ प्रमाण आगे की भूमि को देखते हुए मुनि उपयोगपूर्वक चले ॥३॥
ओवायं क्सिम खाणं, विजलं परिवज्जए।
संकमेण न गच्छिज्जा, विज्जमाणे परक्षमे||४|| सं.छा.: अवपातं विषमं स्थाणुं, विजलं परिवर्जयेत्। - सङ्क्रमेण न गच्छेत्, विद्यमाने पराक्रामेत्।।४॥ भावार्थ : चलते हुए मार्ग में खड्डे, स्तंभ, बिना पानी का किच्चड़ हो नदी आदि को पार करने के लिए पत्थर काष्ठ आदि रक्खा हो ऐसे प्रसंग पर दूसरा योग्य मार्ग मिल जाय तो उस मार्ग से साधु न जाय ।।४।। कारण दर्शाते हुए आगे कहा है - . पवईते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए। .
हिंसेज्ज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे||५|| सं.छा. प्रपतन् वा स तत्र, प्रस्खलन् वा संयतः।
. हिंस्यात् प्राणभूतानि, सानथवा स्थावरान् ।।५।। भावार्थ : ऐसे मार्ग पर चलते हुए साधु गिर जाय या स्खलित हो जाय तो त्रस स्थावर जीवों की विराधना हो जाती है, और स्वयं के अंगोपांगों को चोट पहुँचने की संभावना है। इस प्रकार उभय विराधना है ।।५।।
तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए।
सह अन्नेण मग्गेण, जयमेव परकमे ||६|| सं.छा.ः तस्मात्तेन न गच्छेत्, संयतः सुसमाहितः। .. सत्यन्यस्मिन् मार्गे, यतमेव पराक्रामेत्।।६।। भावार्थ : इस कारण से समाधियुक्त जिनाज्ञा पालक साधु को जब तक शास्त्रोक्त मार्ग
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 57