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न हीलयति नापि च खिंसयति, स्तम्भं च क्रोधं च त्यजति स पूज्यः ।।१२।। भावार्थ : और जो साधु लघु या वृद्ध (स्थविरादि) की, स्त्री-पुरुष की, प्रवजित या गृहस्थकी, हीलना न करें बार-बार लज्जित न करे (खींसना न करे) और तनिमित्तभूत मान एवं क्रोध का त्याग करे वह मुनि पूज्य है ।।१२।। जे माणिया सययं माणयंति, जत्तेण कल्लं व निवेसयंति। ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिइंदिर सच्चरएस पुज्जो||१३|| सं.छा. ये मानिताः सततं मानयन्ति, यत्नेन कन्यामिव निवेशयन्ति।
तान् मानयति मानार्हान् तपस्वी, जितेन्द्रियः सत्यरतः स पूज्यः ।।१३॥ भावार्थ : जो गुरु शिष्यों के द्वारा सम्मानित किये जाने पर शिष्यों को सतत सम्मानित करते हैं, श्रुत ग्रहण करने हेतु उपदेश द्वारा, प्रेरित करते हैं जैसे माता-पिता, कन्या को यत्नपूर्वक सुयोग्य पति प्राप्त करवाते हैं, सुयोग्य कुल में स्थापित करते हैं। उसी प्रकार जो आचार्य सुयोग्य शिष्य को सुयोग्य मार्ग पर स्थापित करते हैं। योग्यतानुसार पद विभूषित करते हैं। ऐसे माननीय पूजनीय, तपस्वी, जितेन्द्रिय सत्यरत आचार्य भगवंत को जो मान देता है वह शिष्य पूजनीय है ॥१३॥
तेसिं गुरुणं गुणसायराणं, सोच्चाण मेहावी सुभासियाई।
चरे मुणी पंच-रए तिगुत्तो, चउकसाया-वगए स पुज्जो||१४|| सं.छा. तेषां गुरूणां गुणसागराणां, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि।
चरति मुनिः पञ्चरतस्त्रिगुप्तः, चतुःकषायापगतः स पूज्यः ।।१४।। भावार्थ : जो बुद्धिनिधान मुनि गुणसागर गुरुओं के शास्त्रोक्त सुवचन को श्रवणकर पंच महाव्रतों से युक्त, तीन गुप्ति से गुप्त एवं चार कषायों से दूर रहता है वह मुनि पूज्य है।।१४।। गुरुमिह सययं पडियरिय मुणी, जिणमय-निउणे अभिगम-कुसले। धुणिय रयमलं पुरेकडं, भासुर-मउलं गई गय ||१५|| ति बेमि || सं.छा.: गुरुमिह सततं परिवर्य मुनिः, जिनमतनिपुणोऽभिगमकुशलः। .. विधूय रजोमलं पुराकृतं, भास्वरामतुलां गतिं गच्छति ।।१५।।
॥इति ब्रवीमि ।। भावार्थ : श्री जिन कथित धर्माचरण में निपुण, अभ्यागत मुनि आदि की वैयावच्च में कुशल साधुनिरंतर आचार्यादि की सेवादि द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मरज को दूरकर ज्ञान तेज से अनुपम ऐसी उत्तम सिद्धि गति में जाता है ।।१५।।
श्री शय्यंभवसूरीश्वरजी कहते हैं कि तीर्थकरादि के कहे अनुसार मैं कहता हूँ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 156