Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 175
________________ करता है तब कर्म के विपाक को भोगते हुए पश्चात्ताप करता है || ६ || जया अ कु - कुटुंबस्स, कु तत्तीहिं विहम्मई । . हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पई ||७|| सं.छा.ः यदा च कुकुटुम्बस्य, कुतप्तिभिर्विहन्यते । हस्तीव बन्धने बद्धः, स पश्चात् परितप्यते ।।७।। भावार्थ: जैसे बंधन से बंधा हाथी पश्चात्ताप करता है वैसे दीक्षा को छोड़ने के बाद 'कुटुंब को संताप कराने वाली चिंता से पश्चात्ताप करता है ।। ७ ।। पुत्त-दार परिकिण्णो, मोहसंताण-संतओ । पंकोसनो जहा नागो, स पच्छा परितप्पड़ ||८|| सं.छा.ः पुत्रदारपरिकीर्णो, मोहसन्तानसन्ततः । पङ्कावसन्नो यथा नागः, स पश्चात् परितप्यते ॥ ८ ॥ भावार्थ : जैसे पंक में फंसा हुआ हाथी पश्चात्ताप करता है वैसे श्रमण पर्याय छोड़ने के . बाद पुत्र, स्त्री आदि के प्रपंच में फंसा हुआ कर्म प्रवाह से व्याप्त बनकर पश्चात्ताप करता है॥८॥ अज्ज आहंगणी हुंतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ। जइ अहं रमंतो परिआए, सामण्णे जिणदेखिए ||९|| सं.छा.ः अद्याऽहं गणी स्यां, भावितात्मा बहुश्रुतः । यद्यहं अरमिष्ये पर्याये, श्रामण्ये जिनदेशिते ॥ ९ ॥ भावार्थ: कोई बुद्धिमान आत्मा इस प्रकार पश्चात्ताप करता है, कि जो मैं जिन कथित श्रमण पर्याय में स्थिर रहा होता तो भावितात्मा, बहुश्रुत होकर आज मैं आचार्य पद को प्राप्त किया होता ॥ ९ ॥ देवलोग - समाणो अ, परिआओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं च महानरय-सारिसी ||१०|| सं.छा.ः देवलोकसमानस्तु पर्यायो महर्षीणाम् । रतानामरतानां च, महानरकसदृशः ||१०|| भावार्थ : दीक्षा पर्याय में आसक्त जिन महात्माओं को यह चारित्र पर्याय देवलोक समान लगता है, वही दीक्षा पर्याय में अप्रीति रखने वाले विषयेच्छु-जैन वेषविडंबकों को पामरजन को महानरक समान लगता है ॥ १० ॥ अमरोवमं जाणिअ सुक्खमुत्तमं रयाण परिआइ तहाऽरयाणं । निरओवमं जाणिअ दुक्खमुत्तमं रमिज्ज तम्हा परिआइ पंडिए ||११|| सं.छा.ः अमरोपमं ज्ञात्वा सौख्यमुत्तमं रतानां पर्याये तथाऽरतानाम्। श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 172

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