Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 174
________________ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छम। सव्व-धम्म-परिब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पड़ ।।२।। सं.छा.ः यदा अवधावितो भवति, इन्द्रो वा पतितः क्षमाम्। • सर्वधर्मपरिभ्रष्टः,स पश्चात् परितप्यते ॥२॥ भावार्थ : जैसे इन्द्र देवलोक के वैभव से च्युत होकर भूमि पर खड़ा परिताप पाता है वैसे प्रव्रज्या छोड़कर गृहस्थ बना हुआ व्यक्ति सभी धर्मों से परिभ्रष्ट होकर बाद में पश्चात्ताप करता है।।२।। जया अ वंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो। देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पड़ ||३|| सं.छा.ः यदा च वन्द्यो भवति, पश्चाद् भवति अवन्द्यः। देवतेव च्युता स्थानात्, स पश्चात् परितप्यते ।।३।। . भावार्थ : श्रमण पर्याय में राजादि से वंदनीय होकर जब दीक्षा छोड़ देता है तब अवंदनीय होकर बाद में परिताप करता है। जैसे स्वस्थान से च्युत देवता।।३।। जया अ.पूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो। राया व रज्ज-पब्भठ्ठो, स पच्छा परितप्पई ॥४| सं.छा.ः यदा च पूज्यो भवति, पश्चाद् भवति अपूज्यः। राजेव राज्यप्रभ्रष्टः, स पश्चात् परितप्यते ।।४।। भावार्थ : श्रमण पर्याय में पूज्य बनकर गृहस्थाश्रम में अपूज्य बनकर वैसे परिताप करता है जैसे राज्यभ्रष्ट राजा।।४।। .: जया अ माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो। .. सिटिव्व कब्बडे छूढो, स पच्छा परितप्पइ ।।५।। सं.छा.: यदा च मान्यो भवति, पश्चाद् भवति अमान्यः। . श्रेष्ठीव कर्बटे क्षिप्तः, स पश्चात् परितप्यते ।।५।। भावार्थ : श्रमण पर्याय में माननीय बनकर गृहस्थ कर्म में अमाननीय बनता है। वह परिताप पाता है, नगरशेठ पद से च्युत छोटे कस्बे में रखे गये-नगरशेठ के समान।।५।। जया अ धेरओ होई, समकंत-जुव्वणो। मच्छु व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पई ।।६।। सं.छा.ः यदा च स्थविरो भवति, समतिक्रान्तयौवनः । मत्स्य इव गलं गिलित्वा, स पश्चात् परितप्यते ।।६।। भावार्थ : लोह के कांटे पर रखे हुए मांस को खाने की इच्छा से जाल में पड़ा हुआ मत्स्य पश्चात्ताप करता है वैसे ही दीक्षा त्यागी मुनि युवावस्था से वृद्धावस्था को प्राप्त श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 171

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