Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 173
________________ क्या प्रयोजन? (७) संयम जीवन को छोड़ना अर्थात् नरकादि गतिओं में निवास योग्य कर्म बन्धन करना। ऐसे दुःखदायक गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (८) ओह! पुत्र कलत्रादि के मोहपाश से बद्ध गृहस्थ को धर्म का स्पर्श निश्चय से दुर्लभ है। ऐसे गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (९) गृहस्थ को सहायक रूप में धर्मबंध न होने से विशुचिकादि रोग द्रव्यभाव प्राणों को नष्ट कर देता है। ऐसे गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (१०) संकल्प विकल्प की उत्पत्ति सतत होते रहने से मानसिक रोग गृहस्थ के नाश के लिए होता है। ऐसे गृहस्थाश्रम से क्या प्रयोजन? (११) गृहवास आजीविकादि की प्रवृत्ति के कारण क्लेश सहित है एवं दीक्षा पर्याय क्लेश रहित है। (१२) गृहवास के अनुष्ठान अशुभ कर्मबंधन कारक हैं एवं व्रत पर्याय कर्म क्षय का . कारण है। (१३) गृहवास में पांचों आश्रवों का आसेवन होने से सावध पापयुक्त है मुनि पर्याय आश्रवरहित होने से अनवद्य पापरहित है। (१४) गृहस्थ के काम भोग सर्वसाधारण है निचजन को भी काम भोग सुलभ है ऐसे भोगों के लिए चारित्रावस्था का त्याग क्यों करूं? (१५) पाप, पुण्य का फल प्रत्येक आत्मा को, करनेवाले को भुगतना पड़ता है तो गृहवास में अनेक आत्माओं के लिए अकेला पापकर उसके कटु फल मैं क्यों भोगुं? (१६) ओह! मानव का आयुष्य अनित्य है कुश के अग्रभाग पर स्थित जल-बिंदु सम है तो सोपक्रम आयु से मैं आराधना का फल क्यों छोडूं? (१७) ओह! मैंने पूर्व भवों में अति संक्लेश. फलदाता चारित्रावरणीय कर्म को बांधा हुआ है अतः चारित्र छोड़ने की नीच बुद्धि उत्पन्न हुई है अति अशुभ कर्म उत्पादक ऐसे गृहस्थाश्रम का क्या प्रयोजन? (१८) ओह! दुष्ट चरित्र एवं दुष्ट पराक्रम के कारण पूर्व में अशुभ कर्म जो बांधे हैं उनको भोगे बिना मोक्ष नहीं होता। वे भोगे बिना या तपधर्म द्वारा उनका क्षय किये बिना मोक्ष नहीं होता। अतः तपश्चर्यादि अनुष्ठान कल्याण रूप है अतः गृहस्थाश्रम को स्वीकार न करना यही कल्याणरूप है। यह अठारवाँ स्थान है। इन अर्थो का प्रतिपादन करनेवाले श्लोक कहे जाते हैं। भविष्यकाल का विचार : जया य चयइ धम्म, अणज्जो भोगकारणा। से तत्थ मुच्छिष्ट बाले, आयई नावबुज्झई ।।१।। सं.छा.: यदा च त्यजति धर्म, अनार्यो भोगकारणात्। . स तत्र मूर्च्छितो बालः, आयतिं नावबुध्यते ।।१।। भावार्थ : अनार्यो जैसी चेष्टा करनेवाला मुनि भोगार्थ साधु धर्म का त्याग करता है तब वह विषयों में मूर्च्छित अज्ञानी-बाल भविष्य काल को अच्छी प्रकार नहीं समझता/नहीं देखता/नहीं जानता॥१॥ पश्चाताप का कारण : श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 170

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