Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 171
________________ बना हुआन।८।। (रयाणं) रक्त प्रीति रखनेवाला ।।१०।। (अवेयं) रहित (जन्नग्गि) यज्ञ की अग्नि (दुविहि) दुष्ट व्यापार करनेवाला (दाढुड्डियं) जहर युक्त दाढ़ से रहित सर्प ।।१२।। (दुनामधिज्ज) निंदनीय नाम (पिहुज्जणंमि) नीच लोक में (चुअस्स) भ्रष्ट बने हुए को (संभिन्नवित्तस्स) चारित्र को खंडित करनेवाली ।।१३।। (पसज्झ चेअसा) स्वच्छंद मन से (कट्ट) करके (अणहिझिअं) धारणा बिना की, अनिष्ट दुःखपूर्ण ।।१४।। (दुहोवणीअस्स) दुःख द्वारा प्राप्त (किलेसवत्तिणो) एकांत क्लेशयुक्त ।।१५।। (अविस्सइ) जावे (जीविअ पज्जवेण) आयुष्य के अंत से ।।१६।। (नो पइलति) चलित न कर सके (उविंतवाया) तुफानी पवन (संपस्सिअ) विचारकर (अहिद्विज्जासि) आश्रय करे ॥१८॥ प्रवर्जित पतन से कैसे बचे? इह खलु भो पव्वइष्टणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्न-चित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सि-गयंकुस-पोय-पडागा-भूआई ईमाइं अट्ठारस . ठाणाईं सम्मं संपडिलेहिअव्वाइं भवंति। . सं.छा.ः इह खलु भोः प्रव्रजितेन, उत्पन्नदुःखेन संयमे अरतिसमापन्नचित्तेन, अवधानोत्प्रेक्षिणाऽनवधावितेनैव हयरश्मिगजाङ्कुशपोतपताका भूतानि, अमूनि, अष्टादश स्थानानि सम्यक् सम्प्रेक्षितव्यानि भवन्ति। भावार्थ : हे शिष्यों! जिस प्रव्रजित साधु का शारीरिक या मानसिक दुःख उत्पन्न होने पर संयम पालन में उद्वेग अरति के कारण चित्त उद्विग्नता युक्त हो गया है। और संयम को छोड़ने की इच्छावाला बन गया है, पर संयम का त्याग नहीं किया है। उस प्रवर्जित मुनि को निम्न अठारह स्थानों को भलीभांति समझना चाहिए। ___ ये अठारह स्थान मुनि को उन्मार्ग से सन्मार्ग पर लाने हेतु उसी प्रकार उपयोगी है जिस प्रकार अश्व के लिए लगाम,हाथी के लिए अंकुश, नौका के लिए ध्वजा/पताका आवश्यक है। तं जहा - हं भो दस्समाए दुप्पजीवी (१) लहुसगा . इत्तरिआ गिहीणं कामभोगा, (२) भुज्जो अ साइबहुला मणुस्सा, (३) इमे अ मे दुक्खे न चिरकालो- वठ्ठाइ .. भविस्सइ, (४) ओमजणपुरकारे, (५) वंतस्स य पडिआयणं, (६) अहरगइ वासोवसंपया, (७) दुल्लाहे खलु भो गिहीणं धम्मे गिहवासमझे वसंताणं, (८) आयंके से वहाय होड़, (९) संकप्पे से वहाय होइ (१०) सोवळेसे गिहवासे, निरुवकेसे परिआए, (११) बंधे गिहवासे, मुक्खे श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 168

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