Book Title: Sarth Dashvaikalik Sutram
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 166
________________ आदि की विराधना न करनेवाला मुनि है। भिक्षु है।।२।। - जो वस्त्रादि से हवा न करता है, न करवाता है, वनस्पतिकाय का छेदन भेदन न करता है न करवाता है। बीजों के संघट्टे से दूर रहता है और सचित्ताहार का भक्षण नहीं करता। वह भिक्षु है ।।३।। आहार शुद्धि:वहणं तस-थावराण होइ, पुढवि-तण-कट्ठ-निस्सियाणं| तम्हा उद्देसियं न भुंजे, नो वि पर न पयावष्ट जे स भिक्खू ||४|| सं.छा. वधनं त्रसस्थावराणां भवति, पृथिवीतृणकाष्ठनिश्रितानाम्। - तस्मादौद्देशिकं न भुङ्क्ते, नाऽपि पचति न पाचयति यः स भिक्षुः ।।४॥ भावार्थ : पृथ्वी, तृण एवं काष्ठादि की निश्रा में रहे हुए त्रस एवं स्थावर जीवों के वध के कारण से साधु के लिए बने हुए औद्देशिकादि आहार जो साधु नहीं खाता है एवं स्वयं आहार न पकाता है, न दूसरों से पकवाता है। वह साधु है। श्रद्धापूर्वक आचार पालन : रोईय-नायपुत्त-वंयणे, अत्तसमे मब्लेज्ज छप्पि काए। पंच य फासे महदयाइ, पंचासव-संवरए जे स भिक्खू ||५|| चत्तारि वमे सया कसाए, धुवजोगी हविज्ज बुद्धवयणे। अहणे निज्जाय-सवरयर, गिहिजोगं परिवज्जर जे स भिक्खू ।।६।। सम्महिहि सया अमूढे, अस्थि हु नाणे तवे संजमे या तवसा धुणई पुराण-पावर्ग, मण-वय-काय-सुसंवुडे जे स भिक्खू ||७|| सं.छा.ः रोचयित्वा ज्ञातपुत्रवचनं, आत्मसमान् मन्यते षडपि कायान्। पञ्च च स्पृशति महाव्रतानि, पञ्चाश्रवसंवृतश्च यः स भिक्षुः ।।५।। चतुरो वमति सदा कषायान्, ध्रुवयोगी भवति बुद्धवचने। अधनो निर्जातरूपरजतो, गृहियोगं परिवर्जयति यः स भिक्षुः ।।६।। . सम्यग्दृष्टिः सदा अमूढः, अस्ति तु ज्ञानं तपः संयमश्च। तपसा धुनोति पुराणपापकं, मनोवाक्कायसुसंवृतो यः स भिक्षुः ।।७।। भावार्थ : ज्ञातपुत्र श्रीवर्धमान स्वामी के वचनों पर रूचि धारण कर अर्थात् श्रद्धापूर्वक जो मुनि छ जीव निकाय को स्वात्म तुल्य मानता है, पांच महाव्रतों का पालन करता है, और पंचाश्रव को रोकता है। वह भिक्षु है।।५।। जो मुनि आगम वचनों से चार कषायों का नित्य त्याग करता है, मन-वचनकाया के योगों को स्थिर रखता है, पशु एवं स्वर्ण, रुप्यादि का त्याग करता है और गृहस्थों से परिचय संबंध नहीं रखता। वह भिक्षु है ।।६।। जो समकित दृष्टि और अमूढ (चित्त में चंचलता रहित) है। वह मुनि ऐसा श्री दशवैकालिक सूत्रम् - 163

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